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श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म-कर्मों की अलौकिकता
भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र अनेक विभिन्न दृष्टियों से देखा जाता है, परन्तु यहाँ उनके दिव्य जन्म और उनके दिव्य कर्मों के संबंध में, जो उन्होंने अपने जीवन में किये, संक्षेप में कुछ लिखने का विचार है। भगवान श्रीकृष्ण को अपने सखा और भक्त अर्जुन को कर्म तत्पर बनाकर युद्ध में प्रवृत्त करना था। समरभूमि में सामने खडे़ हुए आचार्य, गुरु आदि आप्तजनों और प्रेमियों को मारकर राज्य प्राप्त करना श्रेयस्कर नहीं है, इस प्रकार के विचार सत्त्वशील अर्जुन के मन में उठे और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठ गया। उसे कोई रास्ता नहीं सूझता था। ऐसे अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धर्म का यह तत्तव बतलाना चाहते थे कि कर्म अवश्य करना चाहिये। कर्म का महत्त्व कम नहीं है, कर्म करना कोई नीची बात नहीं है। इसके विपरीत कर्म न करना ही धर्म के विपरीत है। आत्मोन्नति के लिए और लोक संग्रह के लिए कर्म करना आवश्यक है। इसके सिवा यदि कर्म-त्याग कोई करना भी चाहे तो वह हो नहीं सकता। शरीर रक्षा के लिए कुछ न कुछ कर्म करना ही पडे़गा और फिर कर्म तुम्हीं अकेले को तो करना पड़ नहीं रहा है। बड़े-बड़े़ पुरुष बराबर कर्म करते आ रहे हैं। यहाँ तक कि मैं भी, जो जगत का ईश्वर हूँ जिसे स्वार्थदृष्टि से कुछ भी करना धरना नहीं है, लोक संग्रह के लिए लोगों के सामने उत्तम आदर्श रखने के लिए कर्म किया करता हूँ। क्योंकि श्रेष्ठजन जैसा कुछ करते हैं साधारण लोग उसी का अनुसरण करते हैं। अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन् । अर्थात ‘मैं अजन्मा, अविनाशी और सब भूतों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी माया से जान लिया करता हूँ ।‘ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 4। 6
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