भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
महाराज कंस
‘कंस कैसा भी हो, उस सदन की ओर देखने का साहस उसमें नहीं है।’ रोहिणी जी ने कहा– ‘जो एकमात्र श्रीहरि में लगे हैं उनकी रक्षा वे सर्वेश्वर कर लेंगे।’ कारागार से लौटकर रोहिणी जी ने ही वसुदेव जी की सोलह पत्नियों को विदा किया– ‘बहिन! जिस देव ने यह दिन दिखलाया है वह कभी अनुकूल हुआ ताे हम फिर मिलेंगी।’ एक-दूसरी से गले मिलकर फूट-फूटकर रोते हुए वे विदा हुई थीं। जिनके पितृ-गृह उनको सादर रख लेते–वे भी वहाँ नहीं गयीं। उन्होंने भी कह दिया– ‘आर्यपुत्र कारागार में हैं और हम राजसुख भोगने पिता के घर जायँ–ऐसा हमसे नहीं होगा।’ वनों में ऋषि-आश्रम में और गिरि-गुहाओं में ही उन्हें आश्रय मिल सकता था। जिनको अब दीर्घकाल तक तपस्विनी का जीवन व्यतीत करना था, उनके लिए यही बहुत था। वन्य कन्द, मूल, फल, शाक का आहार और वल्कल वस्त्र–पतिवियुक्ता, व्रतनिष्ठा नारी को इतना कम कहाँ था। अत्यन्त अनुरक्त दासियों में से भी एक-दो ही उनमें से प्रत्येक के साथ जा सकीं। वृद्ध सेवक भी साथ गये उनके। ‘वसुदेव जी की केवल एक पत्नी नगर में रह गयी हैं। वह अपने श्वसुर के सदन में रहने लगी है।’ कंस को समाचार मिल गया। ‘उसे रहने दो। शूरसेन जी ऐसे शान्त हैं कि उनके समीप रहकर वह तपस्या ही कर सकती हैं।’ कंस ने कहा– ‘वसुदेव के समीप उसे निर्बाध आने-जाने दो।’ ‘वसुदेव की शेष पत्नियाँ कहाँ गयीं– हम पता लगा लेंगे।’ एक असुर मन्त्री ने कहा। ‘क्या आवश्यकता है?’ कंस ने उसे घूरकर देखा– ‘वे अपने पितृ-गृह नहीं गयीं, अत: उनसे कोई भय तो है नहीं। उनका पता लगाकर तुम क्या उन्हें निर्वाह-द्रव्य भेजने वाले हो? वे स्वत: चली गयी हैं और हमको पता नहीं है कि वे कहाँ जा छिपी हैं, अतएव यह कलंक भी हम पर नहीं आता कि हम अपनी बहिनों के जीवन-निर्वाह की व्यवस्था नहीं करते।’ ‘बहुत से यदुवंशी रात्रि में ही भाग गये।’ मन्त्री ने दूसरी सूचना दी– ‘अधिकांश को अभी ही अपने सम्बन्धियों के यहाँ जाने की आवश्यकता आ पड़ी है। वे भी जाना चाहते हैं।’ ‘उनमें से जो शासन के प्रमुख पदों पर हैं; जैसे दानाध्यक्ष अक्रूर’, कंस ने कहा– ‘ऐसे लोगों को नगर से बाहर जाने से पूर्व मुझसे अनुमति लेनी चाहिये। इनके अतिरिक्त जो लोग जाना चाहें, जाने दो। ऐसे व्यक्तियों का चले जाना अच्छा है, जिन पर हम भरोसा नहीं कर सकते। वे रहेंगे तो हमको उन पर सतर्क दृष्टि रखनी होगी।’ ‘प्रजा के लोग भी भाग रहे हैं।’ दूसरे मन्त्री ने कहा। ‘यह भगदड़ बहुत बड़े स्तर पर है।’ ‘तुम अपने स्वजन-सम्बन्धी लोगों को यहाँ आमन्त्रित करो।’ कंस ने सब असुर सहायकों को अनुमति दे दी। ‘ब्राह्मणों में जो जाते हों, किसी को मत रोको। व्यापारियों में जो प्रमुख हैं, उन्हें तंग मत करो। वे अपना धन-भवन-व्यापार छोड़कर भागें भी तो आश्वस्त होने पर शीघ्र लौट आवेंगे।’ ‘सेवक?’ प्रश्न सहज था। ‘जो भाग रहे हैं, उनके सेवक उनके प्रति निष्ठावान हैं। उन्हें रोककर घर में सर्प बसाये रहना है?’ कंस ने डाँटा– ‘केवल जो किसी कला में बहुत निपुण हैं, उन पर दृष्टि रखो कि वे न भाग सकें।’ कंस के अनुचरों ने कुछ अधिक ही किया। जो भी लोग उन्हें अप्रिय थे, अभीष्ट नहीं थे, उन्हें सताना प्रारम्भ कर दिया कि वे भाग जायँ। जो रोक लिये गये, वे महाराज कंस के अनुगत रहने को विवश थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज