भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु सेवा
रात्रि व्यतीत हुई। अरुणोदय का मंद प्रकाश हुआ और गुरुदेव बालकों के साथ निकल पड़े। उटज द्वार पर ही रात्रि व्यतीत की उन्होंने। प्रात: वर्षा रुकी और निकले वे। कृष्ण भी तो शअरी दाम के साथ आश्रम पहुँचने को चल पड़ा है। कृष्ण! कृष्ण चंद्र! विह्वल, कातर स्वर। गुरु देव पुकार रहे हैं। बार–बार पुकार रहे हैं। भगवन! यह वृष्णिगोत्रीय यादव वासुदेव कृष्ण श्री चरणों में प्रणत है! दौड़ता ही आया है कृष्ण, किंतु उसे आज भूमिष्ठ होने का अवसर नहीं मिला। गुरु देव ने उसे भुजाओं में लेकर हृदय से लगा लिया। कृष्ण चंद्र! वत्स! देह धारी मात्र के लिए शरीर परम प्रिय है और तुम्हारा यह भुवन मोहन सुकुमार शरीर। तुमने इसे मेरे लिए घोर संकट में डाल दिया। रात्रि भर कानन में भीगते रहे। मैं अकिञ्चन ब्राह्मण आशीर्वाद ही दे सकता हूँ। क्षणार्ध में महामुनि सान्दीपन का गद्गगद स्वर शांत, स्थिर हो गया। आशीर्वाद की परावाणी उठी उस कण्ठ से-तुम दोनों भाइयों को सम्पूर्ण विद्याएं आ जाएं। इस लोग में और परलोक में भी शाश्वत तुम्हारे साथ रहें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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