भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
ब्रजराज विदा हुए
मथुरा का वैभव श्रीकृष्ण का अनुग्रह; किन्तु श्रीकृष्ण को अब घर भी तो चलना चाहिये। गोपियाँ, गायें, बछड़े, व्रजभूमि का अणु-अणु, एक-एक तृण-पत्र उनकी आकुल प्रतीक्षा कर रहा है। ‘कन्हाई बदल गया है–बदलता जा रहा है।’ सखाओं का मन अब मथुरा में नहीं लगता। यह महानगर, ये राजभवन, इनका यहाँ यह नित्य नवीन सत्कार; किन्तु इनका अपना श्याम तो दूसरों के स्वागत-सत्कार में ही थका जा रहा है। वह आता है, कई बार दिन में आता है, पर शीघ्र उसे भागने की पड़ी रहती है। वृन्दावन का वह स्वच्छन्द विहार, वह उन्मुक्त क्रीड़ा–बालकों को लगता है कि यहाँ उनका कृष्ण दिन-दिन दुबला होता जा रहा है। श्याम चलता नहीं, अन्यथा ये तो छकड़ों की भी प्रतीक्षा न करें, पैदल व्रज भाग जायें। उत्तेजना सीमा पार करने लगी। जब विचारवान वृद्धों का चिन्तनशील मस्तक चिन्ता से झुक जाता है, जब उनकी अनुभव-पक्व मेधा कोई मार्ग नहीं पाती, तभी तरुणों के सबल रक्त की उत्तेजना प्रज्वलित बडवाग्नि-सी फुँकार करती पथ प्रशस्त कर देती है। युवकों का आवेश ही निराशा के अन्धकार में प्रदीप्त प्रकाश लाता है। ‘कन्हाई को लिये बिना कौन जायेगा व्रज? युवक उत्तेजित हो रहे हैं– ‘ये मथुरा के लोग हमारे युवराज को ही हमसे छल करके छीन लेना चाहते हैं? व्रज के जीवनधन को खोकर व्रजवासी जीवित रहेंगे?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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