भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
साकार तत्त्व
नित्यधाम असंख्य है और असंख्य रूपों में वही एक चिन्मय क्रीड़ा तत्व कर रहा है। अत: अपने उस मूल बिम्ब तक पहुँचने के साधन भी असंख्य है। अवश्य ही इन साधनों का वर्गीकरण है। देह, भावना और ज्ञान- ये तीन मूलाधार मनुष्य के पास है और इन तीनो के माध्यम से, तीनों में से किसी एक को माध्यम बनाकर मनुष्य अपना प्राप्तव्य पा सकता है। देह को माध्यम बनाकर योग होता है। निष्काम कर्मयोग, अष्टांग योग, लययोग आदि में प्रमुख माध्यम है शरीर और भावना तथा बुद्धि उसकी सहायक बनी रहती है। वृत्ति निरोध-मन सर्वथा कर्तव्य-शून्य होकर स्थिर हो जाय। अन्त:करण में गति ओर प्रतिबिम्ब कुछ भी न रहे। अब हुआ यह कि जीव तो स्वरूप से ही परम ब्रह्म था। वृत्तियों से विकृति नष्ट हुइ तो वह स्वरूप से स्थित हो गया। उसका निर्वाण हो गया। उसका प्रतिबिम्बत्व भंग हो गया। वह निर्गुण, निराकार तत्व से एक हो गया।[1] बुद्धि को-विवेक को माध्यम बनाकर बुद्धि प्रधान साधक चलता है। जिनमें बहुत सुदृढ़ वैराग्य है और बुद्धि की प्रधानता है, स्वरूपत: जो त्याग परायण हैं, वे ज्ञान के अधिकारी हैं; किन्तु जो कर्मासक्त है- कर्म किये बिना, संग्रह किये बिना नही रह सकते, उन्हें योग का मार्ग अपनाना चाहिए। क्रिया का प्राधान्य उन्हें मुक्त करेगा। जो दुर्बल हैं; किन्तु छूटना चाहते हैं- आसक्ति कम है- पर भोगों को, विषयों को छोड़ नहीं पाते हैं, वे भक्ति के अधिकारी हैं। दुर्बल असमर्थ को ही तो समर्थ सहायक की आवश्यकता है। ऐसे लोग अभागे हैं यदि उनमें भावना नहीं है। वे न योग के अधिकारी हैं, न ज्ञान के; क्योंकि उनमें स्वयं चलने की शक्ति नहीं हैं ओर बिना श्रद्धा के, बिना विश्वास और भावना के दूसरे समर्थ-अदृश्य का करावलम्ब उन्हें कैसे मिल सकता है। भटकते रहना ही उनकी नियति है। मुख्य बात है देहासक्ति - परिच्छिन्न देह में ममत्व का उच्छेद। साधन मात्र का यही परम प्राप्य है। योग के द्वारा वृत्ति निरोध होकर स्वरूपाव स्थान तभी होगा जब यम-नियम सम्यक पूर्ण हों ओर तब ध्यान में बदली हो। ज्ञान ब्रह्मात्मैक्यबोध में तभी समर्थ होता है जब पहले प्रबल वैराग्य ने सम्यक त्याग का रूप ले लिया हो। तभी देहासक्ति का पाश कटता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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यदा न लीयते चित्तं न च विक्षिप्यते पुन:।
अनिड़्नमनाभांस निष्पन्न ब्रह्म तत्तदा॥
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