भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वासुदेव गोकुल गये
‘अब आप?’ नेत्रों से ही योगमाया ने भगवान शेष से पूछा था। उनका तात्पर्य था कि आप अब यहीं विराजें। मन की ही भाषा में उत्तर मिला– ‘चुपचाप पड़ी रही! अब तू अनुजा हो गयी है। तुझे तेरे घर तक पहुँचा आऊँ और फिर पिता की भी तो सेवा मिल रही है मुझे।’ ‘कंस आ न गया हो!’ वसुदेव जी को अब दूसरी आशंका पूरे वेग से चलने को बाध्य कर रही थी। उनका ध्यान अब इस भय ने किसी ओर नहीं जाने दिया। वे जैसे आये थे, वैसे ही चलते गये। यमुना ने फिर मार्ग दिया। छोटे भाई न सही, छोटी बहिन है इस बार और अनन्त तो साथ हैं ही। वसुदेव जी ने कारागार के द्वार में प्रवेश किया और भगवान अनन्त अदृश्य हो गये। वह विशाल द्वार वसुदेव जी के पीछे स्वत: बन्द हो गया। बन्द हो गयी अर्गला, श्रृंखलादि। ऐसे ही कक्ष में प्रवेश करते ही कक्ष-द्वार भी बन्द हो गया। वसुदेव जी ने सूप उतारा और बेड़ी पदों में, हथकड़ी हाथों में डाली तो वे जकड़ गयीं। मानों वे कभी वहाँ से हटी ही न हों। माया आयी तो बन्धन भी आना ही था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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