पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
23. बैरका बीज हँसी
अचानक भाइयों से घिरे दुर्योधन ने द्वार में प्रवेश किया। वह उत्तेजित था। हाथ में नंगी तलवार लिये था। मस्तक पर कई किरीटों से युक्त मुकुट धारण किये था और आक्षेप कर रहा था – ‘सम्पत्ति ने पाण्डवों को मदान्ध कर दिया है। बेचारे शिशुपाल जैसे सम्बन्धी का शव चुपचाप जला दिया। उसे राजोचित सम्मान भी नहीं दिया गया। अब यहाँ तो श्रीकृष्ण ही सब कुछ हैं। हम सगे भाइयों तक को साम्राज्ञी पूछती नहीं है। न राजसभा में आते समय सम्राट हमें सूचना देना आवश्यक समझते। सम्राट ! हुँ.......... ।’ दुर्योधन उस मयकृत सभा में अनेक बार आ चुका था लेकिन इस समय वह आवेश में होने से सावधान नहीं था। उसके भाइयों का भी ध्यान उसकी बातों की ओर था। सब इसी समय युधिष्ठिर को कहकर हस्तिनापुर चले जाने को प्रस्तुत होकर आये थे। उन्होंने निर्णय कर लिया था कि सम्राट का कोई उपहार स्वीकार नहीं करेंगे। दुर्योधन का कहना था – ‘अब ये हमारे टुकड़ों पर पले पाण्डुपुत्र हमें उपहार देंगे।’ अचानक दुर्योधन को लगा कि सामने सरोवर है, ऐसा सरोवर जिसके जल में चरण धोकर ही आगे जाया जाता है। उसने अपने नीचे लटकते वस्त्रों को उठा लिया किन्तु पद बढ़ाते ही भूल समझ में आ गयी। वहाँ तो स्फटिक भूमि थी। पाण्डव सामने ही देख रहे थे। द्रौपदी के मुख पर स्मित देखकर दुर्योधन ने झुंझलाकर वस्त्र छोड़ दिया। वह एक ओर मुड़ा। उसका उद्देश्य था कि पार्श्व से घूमकर सिंहासन तक पहुँच जाय क्योंकि सरोवर कहीं प्रांगण में ही था। इस प्रयत्न में वह द्वार समझकर जहाँ प्रवेश करना चाहता था, वहाँ भित्ति से मस्तक टकरा गया। चोट तो लगी ही, क्रोध भी बहुत आया। अब सीधे ही चलने का निर्णय करके बढ़ा और प्रांगण के सरोवर में गिर पड़ा। उसे ध्यान ही नहीं रहा कि सरोवर ठीक कहाँ हैं। वस्त्र भीग गये। ‘अन्धे का पुत्र अन्धा ही होता है।’ कहकर भीमसेन जोर से हँस पड़े। द्रौपदी भी खिलखिलाकर हँसी। युधिष्ठिर ने रोकना चाहा किन्तु अब तो जो होना था वह हो चुका था। दुर्योधन उठकर लौटा और भाइयों के साथ निकल गया भवन से। वह बिना विदा लिये हस्तिनापुर चला गया। श्रीकृष्णचन्द्र शान्त बैठे रहे। वे कुछ भी नहीं बोले। अवश्य ही इस घटना से युधिष्ठिर उदास हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज