पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
23. बैरका बीज हँसी
अपने आप में यह बहुत बड़ा गौरव दिया श्रीकृष्ण ने उसे। वह सम्राट का प्रतिनिधि था। सब नरेश उसके सम्मुख पंक्तिबद्ध अपना क्रम आने की प्रतीक्षा करते थे और सादर मस्तक झुकाकर अपने उपहार अर्पित करते थे। उसके साथ एक शब्द भी बोल लेना बहुत प्रतापी राजाओं के लिए भी सम्मान की बात थी। वह सस्मित देखकर भी दूसरों को उपकृत करने की स्थिति में था; किन्तु इस सब में उसका नहीं युधिष्ठिर का गौरव था। वह अपार रत्नराशि युधिष्ठिर के लिए आ रही थी। दुर्योधन की ईर्ष्या, जितना सम्मान उसे उस समय मिला, उससे भड़कती गयी। प्रत्येक बहुमूल्य उपहार उसे द्वेष दग्ध करता गया और उपहार तो इतने दुर्लभ, इतने बहुमूल्य तथा इतने अधिक आ रहे थे कि सुरपति भी उनकी स्पृहा करें। शिशुपाल का विरोध दुर्योधन को प्रसन्न करने वाला था किन्तु वह चक्रपाणि के क्रोध की ज्वाला में जल गया। दूसरे विरोधी दीखे भी नहीं। सर्वत्र युधिष्ठिर का जय-जयकार, युधिष्ठिर की प्रशंसा – जो स्वप्न दुर्योधन अपने लिए देखता था वह उसके प्रतिद्वन्द्वी के लिए सत्य हो गया, इससे अधिक दु:खद और क्या हो सकता था उसके लिए। कुष्ट में कण्डू के समान कुरुराज के हृदय में एक और भयानक शूल उत्पन्न हो गया था। उसका चित्त पांचाल में ही द्रुपदराज तनया के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया था और वह अयोनिजा सौन्दर्य मूर्ति देवर समझकर भी उसकी ओर देखती नहीं थी। अवभृथ स्नान के उन्मद उल्लास में भी उसने एक चुल्लू पानी, एक पिचकारी नहीं फेंकी दुर्योधन पर और दुर्योधन पर और दुर्योधन, वह तो उस समय द्रौपदी के समीप ही मँडराता रहा था।[1] द्रौपदी का भीगे वस्त्रों में से झलकता वह श्यामांग और उसका वह मधुर हास्य, वह जल उलीचना, वह चापल्य किन्तु दुर्योधन उसका एक कण भी तो नहीं पा सका। वह द्रुपदतनया तो जैसे श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे को देखना ही नहीं चाहती। वह श्रीकृष्ण को ही सींचने हँसाने और सरत्कृत करने में तन्मय। श्रीकृष्ण उसे बहिन न कहकर ‘सखि’ कहते हैं; किन्तु सगी बहिन सुभद्रा से अधिक ही स्नेह देते हैं। दुर्योधन की लोलुप, दोष दूषित दृष्टि भी वहाँ कोई दूषण नहीं देख सकी किन्तु द्रौपदी जब श्रीकृष्ण के समीप होने पर पाण्डवों को ही नहीं देखती तो दुर्योधन जी भी कहीं पास हैं, इस पर उसका ध्यान कैसे जाता। जलपान, भोजन आदि व्यवस्था साम्राज्ञी द्रौपदी सम्हालती थीं और दुर्योधन को अपने सत्कार में कहीं त्रुटि नहीं मिली। उनके चित्त का दोष इससे उन्हें भ्रान्त ही करता रहा। उन्हें इस सौजन्य, शील, शिष्टाचार में भी अपने प्रति आकर्षण का आभास होता था किन्तु उन्हें कहीं से तनिक भी द्रौपदी ने प्रोत्साहन नहीं दिया, इससे उनकी पीड़ा बहुत अधिक बढ़ गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘यस्यां विषक्तहृदय: कुरुराडतप्यत्।’ -भागवत 10-75-32
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