पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
भीमसेन ने रथ से उतरकर द्वार को उखाड़ फेंका और श्रीकृष्णचन्द्र प्रविष्ट हुए उस द्वार से। ये अशरण शरण ऐसे ही सदा अपने पुकारने वालों को परित्राण देने आने के अभ्यासी हैं। सजल जलद श्याम वपु, विद्युत के समान चमकता पीतपट, चतुर्भुज घुंघराली अलकों से घिरा श्रीमुख मन्द स्मित शोभित पुण्डरीकाक्ष अपने विशाल दृगों से अनन्त-अनन्त कृपा की धारा वर्षा करते कारागार के द्वार में प्रविष्ट हुए। अञ्जलि बांधकर, नेत्रों से अश्रु वर्षा करते गदगद् स्वर में स्तुति करने लगे। सबका एक ही तात्पर्य था- ‘स्वामि ! हम तो भटक रहे थे आपकी माया से मोहित होकर। हमें अपने धन, बल, राज्य प्रभाव का बड़ा घमण्ड था। पता ही नहीं था कि आप काल स्वरूप के सम्मुख यह सब कितना तुच्छ है। हम अनुभव करते हैं कि मगधराज के रूप में आपका अनुग्रह उतरा और हम उस मोह से जागे। जरासन्ध ने हमें राज्य भ्रष्ट करके, बन्दी करके विवेक नेत्र प्रदान किया। हमें अपनी शक्ति की तुच्छता ज्ञात हुई और सबसे बड़ी बात हुई कि आपके श्रीकरणों का दर्शन हुआ। आपका दर्शन अमोघ है, अत: यह वरदान दें कि आपके इन पाद पद्मों की स्मृति सदा बनी रहे।’ यह चर्चा चल रही थी कि नगरी की ओर से स्वागत में बजते बाद्य, शंख ध्वनि स्वर सुनाई पड़ा जलती मशालें लिए बहुत अधिक लोग आ रहे थे और उनकी ध्वनि सुनाई पड़ने लगी थी- ‘भगवान वासुदव की जय। पुरुषोत्तम श्रीद्वारिकाधीश की जय।’ ‘मगधराज मारे गये। भीमसेन ने उन्हें चीर डाला।’ मल्लशाला से सेवक यह चिल्लाते पुकारते नगर में गये थे, उस समय जरासन्ध का कोई सहायक नरेश मगध में नहीं था। शिशुपाल अपनी राजधानी में था और दूसरा भी कोई वहाँ नहीं था। राज्यकार्य सञ्चालन का भार जरासन्ध पहिले ही अपने पुत्र सहदेव को देकर सत्ताइस दिन पहिले मल्लशाला गया था। द्वन्द्व युद्ध करना था, अत: सेना को भी सावधान नहीं किया गया था। |
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