पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
प्रतीक्षा- उत्कटतम प्रतीक्षा में अहर्निशि लगे आतुर प्राण और वह भी श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा। उन माधव का निरन्तर चिन्तन, उनके आगमन की प्रतीक्षा। ऐसा प्रगाढ़ चिन्तन कि कोई मुनीन्द्र भी क्या करेंगे। इस चिन्तन और प्रतीक्षा का हेतु क्या था, यह प्रश्न व्यर्थ है। श्रीकृष्णचन्द्र तो घृणा या द्वेष से भी हृदय में आवें तो जीव मुक्त हो जाता है, ये तो उनके शरणागत होकर निर्मल हो गया। देह का मोह मिट गया। मृत्यु का भय पता नहीं कब समाप्त हो गया। केवल प्रतीक्षा विशुद्ध प्रतीक्षा बच गयी- ‘वे परमपुरुष कब पधारेंगे। हमारे नेत्र धन्य होंगे उनका दर्शन करके। हम उनके सुर-मुनि बन्द्य पाद पद्मों में प्रणिपात करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे।’ ‘वे गिरिव्रज आ गये और मगधराज उनमें-से भीमसेन के साथ गदा युद्ध करने में लगा है। वह उनके साथ ही अब मल्लशाला में रहता है।’ यह समाचार भी किसी प्रकार उस गुहा कारागार में पहुँच ही गया, क्योंकि वे समाचार पाने को समुत्सुक थे और उनके हितैषी नगर में थे। ‘जरासन्ध इन पुरुषोत्तम की सन्निधि में प्राण-त्याग करेगा, इनका दर्शन करते मरेगा।’ इस भव्य भावना ने हृदय को दूसरी दिशा दी- ‘हम सबके के साथ ही मगधराज ने क्या अपकार किया? हमारा इतना बड़ा हित तो दूसरा कोई नहीं कर सकता था। जो गुरु नहीं कर सके, पुरोहित नहीं कर सके, वह किया जरासन्ध ने। हम सब राजमद में मत्त ऐश्वर्य भोग में डूबे, मृत्यु को भूले अपने परम कल्याण से ही उदासीन हो रहे थे। ऐसे ही मर जाते और भटकते रहते भवाटवी में। हमें बन्दी करके मगधराज ने कृपा की। भोगों से, पद-प्रतिष्ठा की लिप्सा से, परस्पर की स्पर्धा से मुक्त कर दिया और उसी की अनुकम्पा से अब जनार्दन के दर्शन प्राप्त होंगे।’ ‘जनार्दन के दर्शन प्राप्त होंगे।’ दृढ़ विश्वास है प्राणों में और केवल दर्शनों की उत्कण्ठा है। अभीप्सा बन गयी है वह। द्वार खटकता है, कोई द्वारपाल भी आता है तो पद ध्वनि सुनते ही सबके सब चौंकते हैं, उठ खड़े होते हैं- ‘आये जनार्दन।’ सचमुच वे जनार्दन आ गये उनका रथ आकर उस कारागार के बाहर रुका। |
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