पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. गिरिव्रज-गमन
उस मेद-माँस भक्षिणी राक्षसी ने उस शिशु के दोनों खण्ड उठाये और ले जाने की सुविधा की दृष्टि से उन्हें परस्पर सटाया। वे दोनों अंग सटाते ही जुड़ गये और शिशु जीवित हो गया। वह अपने हाथ की मुट्ठी मुख में डालकर रोने लगा। राक्षसी चकित रह गयी। वह नवजात शिशु इतना कठोर शरीर और भारी था कि जरा भी एक बार उसे उठा न सकी। राक्षसी के हृदय में दया उमड़ी। उसने सोच – मैं इस राजा के यहाँ इतने काल से रहती हूँ। मुझे इसने कभी सताया अथवा भगाया नहीं। यहाँ आहार देकर मेरा सत्कार होता रहा। मैं इसके इस एकमात्र पुत्र को नष्ट नहीं करूँगी। यह इससे पुत्रवान् बने।’ मानव नारी का रूप बनाकर राक्षसी ने बालक को गोद में उठाया और राजा के पास जाकर बोली- ‘राजन ! आप अपना यह पुत्र लें।’
राजा को रानियों के गर्भ से टुकड़े उत्पन्न होने का समाचार मिल चुका था। वे बहुत उदास थे। जीवित पुत्र को देखते ही प्रसन्नता से उठकर उन्होंने जरा को प्रणाम करके पूछा- ‘दयामयी देवि ! आप कौन हैं? आप अवश्य देवलोक से ही मुझ पर कृपा करने पधारी होंगी।’ राक्षसी बालक को छोड़कर अदृश्य हो गयी। रानियाँ सुनते ही आ गयीं। उनके वक्ष से वात्सल्य के कारण दूध टपकने लगा। उन्होंने शिशु को गोद में उठा लिया। वृहद्रथ ने उस राक्षसी जरा के सन्धित किये जाने के कारण पुत्र का नाम जरासन्ध रखा। राक्षसी के सम्मान में महोत्सव किया और उसके निमित्त नियमित बलि देने की व्यवस्था कर दी। जिनके वरदान से वह पुत्र हुआ था, वे महात्मा चण्डकौशिक भी पधारे। उन्होंने वृहद्रथ से कहा- ‘राजन ! यह तुम्हारा पुत्र अत्यन्त पराक्रमी, बलवान, तेजस्वी होगा। इससे संग्राम में शत्रु स्वत: पराजित हो आयेंगे। इसकी आज्ञा सब पर चलेगी। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र भी इसे आहत नहीं कर सकेंगे। इसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव इसे दर्शन देंगे।’ |
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