पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. गिरिव्रज-गमन
महात्मा चण्डकौशिक के वरदान से जरासन्ध दुर्जय हो गया। बड़े होने पर तप करके इसने शंकरजी को सन्तुष्ट कर लिया। उन पिनाकपाणि ने भी इसे अस्त्र-शस्त्र से न मरने का आशीर्वाद दे दिया। इसके प्रबल सहायक और मित्र हंस तथा डिम्भक थे। वे भी शंकरजी के वरदान से अजेय प्राय थे। उन्हें मैंने मार दिया है।[1] इसका दिग्विजयी जमाता कंस तथा दूसरे भी बहुत से सहायक मारे जा चुके हैं। अब द्वन्द्वयुद्ध में इसे मेरी सन्निधि में भीमसेन अवश्य मार देंगे।’ युधिष्ठिर के लिए श्रीकृष्णचन्द्र का यह आश्वासन पर्याप्त था। उन्होंने अनुमति दे दी। श्रीकृष्ण, भीमसेन तथा अर्जुन स्नातक के वेश में वहाँ से चले। उन्होंने रथ से यात्रा की, किन्तु मगध की सीमा में पहुँचने से पूर्व ही रथ छोड़ दिया। तीनों ने रक्त वस्त्र धारण किये थे। पुष्पों की माला पहिनी थी। चन्दन लगाया था, किन्तु शरीर पर दूसरा कोई आभूषण अथवा मुकुट नहीं था। वे कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं ले गये थे। उन्हें देखकर केवल यही कहा जा सकता था कि वे स्नातक ब्राह्मण होंगे। गिरिव्रज पर्वतों से घिरा दुर्गम गढ़ था। पर्वतों की सन्धि में जहाँ भित्तियाँ थीं, वहाँ राजधानी का सबसे प्राचीन बुर्ज उन्होंने नष्ट कर दिया और इस प्रकार द्वार के नगर में न जाकर उस ध्वस्त प्राचीर के मार्ग से नगर में प्रवेश किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इनकी कथा श्रीद्वारिकाधीश में दी गई है।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज