पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. हस्तिनापुर-कर्षण
दुर्योधन चाहे जितना बड़ा अहंकारी हो, मूर्ख नहीं था। भीष्म की वाणी में उसे स्पष्ट सत्य दीखा। एक साथ उसने सारथी को रथ सज्जित करने को कहा, अपने भवन में भागा, साम्ब और पुत्री लक्ष्मणा को उसने किसी तरह हाथ जोड़कर रथ पर बैठाया। स्वयं बैठे, इतने में तो हस्तिनापुर के आधे सम्मानित लोग रथों पर बैठे बलराम की ओर दौड़ पड़े थे। किसी तरह दुर्योधन भीष्म के बराबर पहुँच सका। दूर से ही पुकारा उसने- ‘त्राहि माम्, त्राहि माम्।’ भीष्म आगे आये। दुर्योधन हाथ जोड़कर कांपता आगे आया। प्रार्थना प्रारम्भ हो गयी- ‘भगवान अनन्त की जय हो ! अनन्त करुणा वरुणालय की जय हो, क्षमासिन्धु की जय हो ! हम अज्ञानी हैं, हमसे अपराध हुआ, पर प्रभो ! अनत दयामय प्रभो अपराधी के अपराध को नहीं देखते। हमारी वाणी का और हमारी उद्दण्डता का अपराध क्षमा करें।’ बलरामजी का हाथ जरा रुका। उन्होंने आँख उठायी। एक ओर से हस्तिनापुर से आये लोगों में कोई नहीं था जो पृथ्वी पर दण्डवत न गिर गया हो। अब बलराम ने हल उठाया। नगर स्थिर होने लगा, किन्तु सदा के लिए गंगा की ओर झुका हुआ नीचा और दूसरी ओर ऊंचा बना रहा। आज भी ऐसा ही है। बलरामजी ने अब कहा- ‘तुम लोग क्योंकि महाराधिराज उग्रसेन के प्रतिनिधि के सामने प्रणत हो, मैंने तुम्हें अभय कर दिया। दुर्योधन ने प्रार्थना की- ‘हमको कुछ क्षण दिया जाय। मैं क्षितीशेश्वर के सम्बन्धियों में अपने को पाकर कृतकत्य हो गया, पर कन्या के साथ मुझे कुछ दहेज देना चाहिए। मुझे कुछ अवसर दिया जाय। आप नगर में पधारें। बलरामजी ने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। मैं यहाँ से एक पद आगे नहीं जाऊँगा। मेरे पुत्र और पुत्रवधु यहीं रहेंगे। इनका विवाह द्वारिका में होगा। तुमको कन्या-दान का अधिकार नहीं रह गया, लेकिन तुम महाराजाधिराज को कुछ भेंट देना चाहते हो, तुम अपने तुम अपने जमाता को दहेज देना चाहते हो, दे सकते हो। बहुत अपमान व्यवहार था। लेकिन अब कौरवों को बुद्धि आ गयी थी। यह अपमान भी उसको आशीर्वाद ही लगा था। दुर्योधन ने नगर में लौटकर जी खोलकर रथ, हाथी, दास-दासी, स्वर्ण, रत्न जो दे सकता था- दुर्योधन के कृपण होने का कलंक कभी किसी ने नहीं लगाया, लक्ष्मणा तो उसकी बहुत प्यारी पुत्री थी- भरपूर लेकर आया। किन्तु बलराम जी ने सबका सब स्वीकार कर लिया। हस्तिनापुर के नाई आदि को उसमें से प्रसाद देना भी उपयुक्त नहीं माना। सब लेकर वे लौट पड़े। कौरव लौटे। अब दुर्योधन का स्वर बदल गया था। वह कहता था- ‘मैं धन्य हूँ, इन अनन्त का मैं शिष्य हूँ। मैं धन्य हूँ, मेरी कन्या स्वीकार करने ये परम प्रभु पधारे हैं। मैं कृतार्थ हो गया। द्वारिका में तो साम्ब का विवाह होना ही था। दुर्योधन ने भी अपने यहाँ भरपूर उत्सव मनाया। पर हस्तिनापुर फिर सीधा न हो सका। |
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