पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
यह संकट तब बहुत बढ़ गया, जब सुधन्वा ने अर्जुन के सारथि को मार दिया। अर्जुन को स्वयं अपने रथ की रश्मि दांतो में दबाकर युद्ध करने को विवश होना पड़ा। दूसरा सारथि उनकी सेना के लोग उन तक पहुँचाने में सफल नहीं हो रहे थे। इससे अर्जुन बहुत विषय स्थिति में पड़ गये। सुधन्वा ने अपनी बाण-वर्षा और बढ़ाते हुए कहा- 'पार्थ ! अपने नित्य सारथि को छोड़कर आपने अच्छा नहीं किया। मरणधार्म सारथि आपका कब तक साथ दे सकता था। अब भी अपने उस सारथि का स्मरण करो, अन्यथा अश्व ले जाना तो दूर प्राण-बचाना भी कठिन हो जायगा आज।' अर्जुन के शरीर में सुधन्वा के पैने बाण बराबर प्रवेश कर रहे थे। रथ-रश्मि दाँतो में लेकर धनुष चलाते हुए सव्यसाची किसी भी प्रकार सुधन्वा के सब बाणों को काट नहीं पा रहे थे। इस संकट में उन्हें श्रीकृष्ण का स्मरण हुआ। मन-ही-मन उन्होंने पुकारा- 'वासुदेव ! अब तो सचमुच तुम्हीं मुझे बचा सकते हो।' कैसे, कहाँ से श्रीकृष्ण आये, प्रश्न व्यर्थ है। उन सर्वव्यापी को कहीं भी प्रकट होने में क्या बाधा है। अचानक आकर उन्होंने अर्जुन के रथ की रश्मि उनके मुख से झपट ली और बोले- 'धनज्जय ! तुम अब युद्ध की ओर पूरा ध्यान दो।' सुधन्वा ने अर्जुन के रथ पर आगे रथ-रश्मि कर में सम्हाले उन मयूर-मुकुटी, नवघन सुन्दर, वनमाली श्रीकृष्ण को देखा। मस्तक झुकाकर उसने प्रणाम किया और अर्जुन को ललकारा- 'गाण्डीवधन्वा ! अब तो तुम्हारे सर्वसमर्थ सखा आ गये तम्हारे समीप। अब तुम मेरे जैसे उद्घत के वध की कोई प्रतिज्ञा कर सकते हो।' बहुत आहत हो गये थे अर्जुन। बड़ा क्रोध आया उन्हें। कृतकृत्य सुधन्वा के स्वर में जो जीवन को धन्य कर लेने के पश्चात मरण को पुनीत करने की त्वरा थी, इसे वे पहिचान नहीं सके। इसे उन्होंने अपने पौरुष को चुनौती मान लिया। अपने त्रोण में से तीन दिव्य बाण निकालकर दिखलाते हुए बोले- 'यदि मैं इन तीन बाणों से ही तेरा सुन्दर मस्तक न काट दूँ तो मेरे पूर्वज उत्तम लोकों से पतित हो और मैं भी पुण्यात्माओं का कोई लोक न प्राप्त कर सकूँ।' अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर सुधन्वा ने एक बार उनको और श्रीकृष्ण को भी देखा। उसने भी प्रतिज्ञा करते पुकार कर कहा- 'सव्यसाची ! तुम्हारे रथ के ये सारथि ही मेरे भी सर्वस्व हैं। मैं इन्हीं के बल पर इनके सम्मुख कह रहा हूँ कि यदि मैं तुम्हारे इन तीनों बाणों को काट न दूँ तो तुझे कभी इनके श्रीचरणों की प्राप्ति न हो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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