पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
यह असन्दिग्ध है कि श्रीहरि के सम्मुख जाकर आपको लौटना नहीं है। मेरा ऋतुकाल सफल करके आप पधारें। मैं आपके सफल-काम होने में सार्थक होऊँगी।' पत्नी की प्रार्थना धर्म-संगत थी। उसे अभी पति गृह आने के पश्चात मिलने का भी अवसर नहीं मिला था। इतना विषय समय न होता तो वह बोल भी नहीं पातीं। रात्रि में युद्ध-चर्चा में उससे मिलना स्मरण नहीं रहा; किन्तु अब उसकी विनय को अस्वीकार करना अधर्म था। युद्ध से सचमुच लौटने की सम्भावना नहीं थी। जिसका अग्नि की साक्षी में पाणिग्रहण किया और श्रुति-मन्त्रों से जिसे अपने धर्म में सहचरी बनाने की शपथ ली, उसकी जीवन के इस विकट अवसर में पहिली और सम्भवत: अन्तिम प्रार्थना भी अस्वीकार कर देना किसी भी प्रकार उचित नहीं था। सुधन्वा को कवच तथा शस्त्र उतारने पड़े। वे पत्नी की प्रार्थना पूर्ण करके, आगमन करके पुन: कवच धारण करके रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि बन्दी बना लिए गये। उन्हें विलम्ब हो चुका था। महाराज हंसध्वज ने पुत्र के विलम्ब का कारण सुना तो अत्यधिक क्रुद्ध होकर बोले- 'कुलांगार ! श्रीहरि के स्वागत का अवसर सम्मुख देखकर भी तुझे काम सूझता है ! धिक्कार है तुझे !' 'इसका क्या किया जाना चाहिए?' महाराज ने राजपुरोहित से पूछा। प्रश्न सुनते ही महामुनि शंख और लिखित दोनों क्रोध में भरकर बोले- 'दूसरा कोई होता तो उसे राजाज्ञा के अनुसार दण्ड देते आप और अपना पुत्र है तो हमसे विधान पूछते हैं? मोहवश पुत्र के कारण धर्म की मर्यादा भंग करने वाले अधर्मी के राज्य में हम नहीं रह सकते !' दोनों वहाँ से जाने लगे तो रथ से कूदकर राजा ने दोनों के चरण पकड़कर क्षमा माँगी। अनुनय करके उन्हें रोका। सुधन्वा को खौलते तैल के कढ़ाह में डाल देने की आज्ञा दे दी। राजकुमार सुधन्वा अत्यन्त उदार और सर्वप्रिय थे। उनका यह दण्ड सुनकर सब रो पड़े। कोई भी सैनिक उन्हें उस कढ़ाह में उठाकर डालने आगे नहीं बढ़ा; किन्तु सुधन्वा ने स्वयं शिरस्त्राण, कवच तथा आभूषण उतार दिये। शस्त्र दूर रख दिया। वे उस कढ़ाह के समीप पहुँचे। हाथ जोड़कर रोते हुए सुधन्वा प्रार्थना कर रहे थे- अन्तर्यामी ! आप जानते ही हैं कि मैं आज प्राण-त्याग को प्रस्तुत होकर ही आया हूँ; किन्तु सब लोग सदा कहेंगे कि सुधन्वा विषयी था। तप्त तैल में जलकर उसकी अपमृत्यु हुई।' इस कलंक से मेरी रक्षा कर लो मेरे सर्वस्व। आपके श्रीमुख का दर्शन करते हुए अर्जुन के बाण से उड़ा मेरा सिर आपके पावन पदों में पड़े, यह मेरी अभिलाषा पूर्ण कर दो प्रणतपाल ! बहुत बड़ी बाँहें हैं आपकी ब्रजेन्द-नन्दन ! इस अपने शरणागत की सुन लो ! कभी आपने प्रह्लाद की भी रक्षा की है, आज सुधन्वा को भी बचा लो !' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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