पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
रात्रि, युद्ध की सज्जा, समर की चर्चा और प्रियजनों से अन्तिम विदा लेने में व्यतीत हो गयी। प्रात: सूर्योदय से पूर्व सदा की भाँति सब ने स्नान-सन्ध्या किया और भगवान भास्कर को अर्घ्य देकर कवच धारण किया। महाराज हसंध्वज के द्वार पर आह्वान-तूर्य का घोष होने से पूर्व ही अधिकांश क्षत्रिय-तरुण आ चुके थे। सब शस्त्र-सज्ज, सब के वाहन सन्नद्ध। सब दृढ़ प्रतिज्ञ प्राण-त्याग को। 'सब आ गये?' महाराज हंसध्वज अपने दोनों राजपुरोहितों तथा मन्त्रियों के साथ पधारे। उन्होंने मंन्त्री से पूछा। तैल भरा कढ़ाह अग्नि पर चढ़ा था। तैल खौल रहा था। दण्ड की घोषणा की गयी तो उसके उपकरण को प्रस्तुत रहना ही चाहिए। मन्त्री ने आगे बढ़कर एकत्र पंक्तिबद्ध समूह के दल-नायकों से पूछा और लौट आये। महाराज के सम्मुख आकर मस्तक झुकाकर कुछ शिथिल स्वर में निवेदन किया- 'सब आ गये। राजकुमार सुबल, सुरथ, सम, सुदर्शन भी उपस्थित हैं; किन्तु.......।' मन्त्री से आगे बोला नहीं गया। महाराज का स्वर उग्र हुआ- 'किन्तु क्या? कौन नहीं आया? तुमने छोटे राजकुमार सुधन्वा का नाम नहीं लिया, वह उपस्थित नहीं हैं?' मन्त्री ने सखेद कहा- 'मैं उनको नहीं देख सका।' 'उसे बन्दी बनाकर ले आओ !' राजा बहुत क्रुद्ध हो उठे थे- 'उसने राजाज्ञा सुनकर भी अवहेलना का साहस कैसे किया? ऐसे परम दुर्लभ अवसर पर भी प्रसाद !' एक सेनानायक कुछ सैनिकों के साथ चल पड़े। राजकुमार सुधन्वा उन्हें अपने सदन के द्वार पर कवच पहिने रथ में चढ़ने को उद्यत ही मिले; किन्तु राजाज्ञा थी। वे बन्दी बनाये गये। उनकी परम सती पत्नी प्रभावती अभी पति को तिलक करके मुड़ी ही थी। उसने पति को बन्दी बनाये जाते देखा और दौड़कर आराधना-कक्ष में पहुँचकर गिर पड़ी। प्रभावती के प्राण क्रन्दन कर उठे- 'मेरे अपराध से स्वामी बन्दी हुए ! मैंने उन्हें विलम्बित किया। सर्वेश्वर ! सर्वसाक्षी ! आप धर्म के प्रभु हो ! पुरुषोत्तम ! यदि मैंने धर्म का अपमान नहीं किया है, यदि मैं सती हूँ, यदि आपके श्रीचरणों में मेरी श्रद्धा है तो मेरे स्वामी को राजदण्ड से बचाइये ! मेरे इन सर्वस्व पौरुष से प्रसन्न होने का अवसर उपस्थित होने दीजिये और आपका दर्शन इनके प्रसाद से चम्पकपुरी को प्राप्त हुआ, यह सुयश दीजिये।' वह सती अत्यन्त आर्त पुकार करती एकाग्र हो गयी। उसे शरीर की, संसार की, संग्राम की कोई सुधि नहीं रही। उसे तो पूरे दिन वाह्य चेतना नहीं आयी। सुधन्वा ने ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान-सन्ध्या कर लिया था। कवच पहिनकर, शस्त्र-सज्ज होकर उन्होंने माता से आशीर्वाद प्राप्त किया। बहिन कुबला ने उनके ललाट पर कुंकुम लगाकर अक्षत लगाया। अन्त में पत्नी से विदा लेने पहुँचे तो वह बालिका हठ करने लगी- 'स्त्री की सफलता स्वामी से सन्तान पाने में है और मुझे आपका अंग-स्पर्श भी नहीं मिला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज