पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
उस ब्राह्मण ने पत्नी से कहा- 'तुम मुझे देहाभिमानी जानकर ही आक्षेप करती हो; किन्तु मैं तो सर्वस्वरूप हूँ। सम्पूर्ण प्रपंच मुझसे ही व्याप्त है। ज्ञान ही मेरा धन है। यह धन शरीर की क्रिया से नहीं पाया जाता, तुम परलोक के विषय में चिन्ता मत करो। मेरे साथ अपने तादात्म्य का चिन्तन करो।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह सुनकर परमब्रह्म के स्वरूप की जिज्ञासा की। श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य के सम्वाद की परिकल्पना करके गुरु के रुप में सुनाया- एक बार प्रजापति दक्ष, शुक, शुक्र, वशिष्ठादि ऋषि जब अपने कर्मों द्वारा प्राप्त मार्गों में भटकते-भटकते थक गये तो परम वृद्ध महर्षि अंगिरा को आगे करके प्रजापति ब्रह्माजी के पास गये और उनसे प्रणाम करके अपने कल्याण का उपाय पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा- 'सम्पूर्ण भूतों का जन्म सत्य से हुआ है। ब्रह्म सत्य है। तप सत्य है। मैं प्रजापति सत्य हूँ। अत: सत्य का आश्रय लो।' उस परम सत्य का प्रतिपादन तो सम्भव नहीं है। मन-वाणी-बुद्धि वहाँ तक पहुँचती नहीं। अत: उसका वर्णन करने के लिए पहिले उसमें सृष्टि का आरोप करते हैं और फिर उसका अपवाद कर देते हैं। ब्रह्माजी ने भी इसी पद्धति का सहारा लिया। ब्रह्मा जी ने तमोगुण, रजोगुण, सत्त्वगुण के कार्यों का वर्णन किया। ये सब गुण परस्पर मिश्रित रहते हैं और इनमें कभी एक का और कभी दूसरे का प्राबल्य हो जाता है, वह बतलाकर कहा कि सृष्टि के समस्त कार्य एवं पदार्थ इन गुणों से ही बने तथा संचालित हैं। गुण ही गुणों में व्यवहार कर रहे हैं, यह जिसकी दृष्टि स्थिर है, वह कहीं संसक्त नहीं होता। वह समत्व में स्थित ही परम सत्य को समझता है। प्रजापति ब्रह्मा ने अहंकार से पञ्चमहाभूत, इन्दियाँ तथा इनके अधिदेवताओं की उत्पत्ति का वर्णन किया। धर्म के लक्षण बतलाये। विषयों की अनुभूति कैसे इन्द्रियों के द्वारा मन में होती है और क्षेत्रज्ञ इन सबसे विलक्षण है, यह समझाया। धर्म के वर्णन में कहा कि सब पदार्थ विकारी, अनित्य, आदि-अन्तवान हैं। ज्ञान ही नित्य है। फिर गृहस्थ-धर्म, वानप्रस्थ धर्म, ब्रह्मचारी के धर्म और सन्यासी के धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। यह अध्यारोप किया गया था। धर्म के पालन से अन्त:करण की शुद्धि हो जाने पर- मन की निवृत्ति होने पर ही तत्त्व-श्रवण अर्थात अपवाद का अधिकार प्राप्त होता है। प्रजापति ने कहा- 'महर्षियों ! जिनके मन का मल मिट गया है, वे धर्मात्मा, निर्मल अन्त:करण पुरुष, तपस्या और ज्ञान के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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