पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, और परमात्मा की भक्ति संसार-सागर से पार होने के उत्सुक सभी के लिए अनिवार्य हैं। जीवन में इनकी पूरी प्रतिष्ठा हुए बिना कोई साधन पूर्णता नहीं पाता। इनको ठीक-ठीक सदा पालन करते रहने पर तप, शौच, तितिक्षा, स्वाध्याय में परिस्थितिवश हुई कुछ च्युति भी बाधक नहीं होती। आत्मज्ञान के पथिक को एकाकी, निष्परिग्रह, परिव्रजनशील होना चाहिए। उसे जन-समूह से पृथक विविक्त देश में आत्मचिन्तन करना चाहिए। स्थान तथा पदार्थ का मोह उसका प्रतिबन्धक बनता है। योग के साधक को सर्वथा निर्जन, निरुपद्रव स्थान में ध्यान करना चाहिए। वह पर्यटनशील नहीं हो सकता; किन्तु उसे अपने मन को सब ओर से हटाकर बार-बार ध्यान में ही एकाग्र करना चाहिए। एक वेदज्ञ, तत्त्वज्ञानी, निवृत्ति-निरत गृहस्थ ब्राह्मण की पतिव्रता, शीलवती पत्नी ने पति से कहा- 'सुना है कि स्त्रियाँ पति के कर्मानुसार लोकों को प्राप्त होती हैं। आप तो कर्म त्यागकर चुप बैठे रहते हैं तो मेरी क्या गति होगी?' ब्राह्मण ने कहा- 'देवि ! इसमें सन्देह नहीं कि जिसकी आसाक्ति जिसमें होगी, वह उसी के साथ जायगा। अत: जो शुभाशुभ कर्मों में लगे लोग हैं, उनमें आसक्ति रखने वाली स्त्री हो या पुरुष, उन लोगों को प्राप्त होने वाले शुभ या अशुभ स्थानों को जायँगे। लेकिन जिसके समस्त कर्म क्षय हो गये हैं, जो त्रिगुणों से अतीत है, उस तत्त्वज्ञ पुरुष में आसक्त होने वाले की भी वही गति होगी जो उस तत्त्वज्ञानी की। तत्त्वज्ञ तो मुक्त ही है, अत: उसमें आसक्त की भी मुक्ति निश्चित है। ये इन्द्रियाँ विषय-सेवन करती हैं तो विषयों की इन्द्रियों में आहुति ही तो पड़ती है। इन्द्रियाँ स्वयं किसी भोग को नहीं लेतीं, वे मन को भोग देती है, अत: इन्द्रियाँ मन में भोगों की आहुति दे रही हैं। यह यज्ञ चल रहा है। इस यज्ञ का जो भोक्ता स्वयं नहीं बनता, यज्ञ का द्रष्टा रहता है, वही सच्चा याज्ञिक है। वह यज्ञ-पुरुष्ा से एक हो जाता है। शरीर की चेष्टा, प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान, इन पांच प्राणों से होती है। इनमें प्रधान कौन? यह विवाद व्यर्थ है। प्रजापति ब्रह्मा ने इन्हें उपदेश किया कि ये सब समान महत्त्व के हैं। इनमें से प्राण-अपान, व्यान-समान तथा व्यान-उदान परस्पराश्रित हैं। देह की सब क्रियाएँ ये प्राण करते हैं। अन्तर्यामी इनका प्रकाशक है। उसी के लिए इनकी चेष्टा है। वही प्रधान है और वह ब्रह्म है- व्यापक है। सब इन्द्रियाँ, सब वृत्तियाँ उस तक पहुँच नहीं पातीं। वह सबसे परे, सर्वाधार है। उस चिन्मय-चिन्मात्र को जानकर ही यह अविद्या का मोह निवृत्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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