पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. भीष्म पर अनुग्रह
श्रीकृष्ण के दान की- उनकी उदारता की भी कहीं सीमा है। समस्त ऋषि-महर्षि धन्य-धन्य कहकर स्तुति करने लगे। आकाश में पुष्पों की वर्षा होने लगी। प्रात: पाण्डवों ने आज सन्ध्यादि भी समन्तक-पञ्चक क्षेत्र में स्नान करके किया था और अब सूर्यास्त का समय समीप था। ऋषि-महर्षियों को सांयकालीन स्नान-सन्ध्या करना था। युधिष्ठिर को सबके आहार की व्यवस्था करनी थी। सबके साथ अब यह एकाहार का क्रम तो आज से ही चल पड़ा था। श्रीकृष्ण-सहित पाण्डवों ने सब महर्षिगणों को प्रणाम किया। ऋषि महर्षि कल आने को कहकर चले गये तो ये लोग भी भीष्म की अनुमति लेकर अपने रथों पर आसीन हुए। आज चतुरंगिणी सेना और सेवकों का समूह भी पाण्डवों के साथ आया था। दूसरे दिन ब्राह्म मुहूर्त में उठकर स्नान-सन्ध्यादि से निवृत होकर श्रीकृष्ण ने सबसे पहले सात्यकि को भेजा पता लगाने कि धर्मराज भीष्म के समीप चलने को प्रस्तुत हुए या नहीं। रात्रि भर भी ये भक्तवत्सल सम्भवत: भीष्म का ही चिन्तन करते रहे होंगे। धर्मराज युधिष्ष्ठिर ने रथों को सजाने के साथ यह आदेश भी दे दिया– 'सेना और सेवक साथ नहीं जायँगे। पितामह के द्वारा उपदिष्ट गूढ़ रहस्यों को सुनने के अनिच्छुक लोगों की भीड़ नहीं जुटाना है। केवल हम लोग चलेंगे।' सब लोग भीष्म के समीप पहुँचे तो वहाँ ऋषिगण पहिले ही आ चुके थे। उन्हें प्रणाम करके सब बैठ गये। श्रीकृष्ण ने भीष्म से पूछा– 'आपकी रात्रि सुख से व्यतीत हुई? आपकी वेदना और व्याकुलता दूर हुई? आपकी स्मृति एवं विवेक अब जागृत है?' भीष्म का कण्ठ भाव-विह्वल हो गया– 'वासुदेव ! मेरे शरीर की व्यथा, दाह तथा मन की व्याकुलता, मोह, थकावट आदि सब आपकी कृपा से कल सांय ही मिट गये थे। अब मैं भूत, भविष्य, वर्तमान- तीनों कालों की बातों को स्पष्ट देख रहा हूँ। आपके वरदान के प्रभाव से वेद, वेदांग, इतिहास-पुराण तथा सभी के धर्मों का स्वरूप सरहस्य अब मेरे हृदय में प्रकाशित है। वर्णों, आश्रमों के धर्म, राजधर्म, कुलधर्म, स्त्री-शूद्रादि के धर्म, जीव की कर्म-गतियाँ और मोक्ष के साधन भी मेरे अन्त:करण में उद्भासित हैं। आपके संकल्प करते ही मैं स्वस्थ, सबल तथा बोलने में समर्थ हो गया था; किन्तु दाता ! यह सब आपकी दया का प्रसाद है। अत: यह बतलाने की कृपा करें कि आप अपने श्रीमुख से युधिष्ठिर को उपदेश क्यों नहीं करते हैं? भीष्म के मुख से ही यह अपना दिया ज्ञान सुनने का आपका आग्रह क्यों है?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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