पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. भीष्म पर अनुग्रह
योगेश्वरेश्वर ! आपने मेरे सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, वह तो सब आपका ही प्रसाद है। आप सब इस समय तो लीला-नाटय मत करो। मैं आपका शरणागत हूँ, अत; मेरा कल्याण हो, वह आप करो।' भीष्म के स्तवन से सुप्रसन्न श्रीकृष्ण बोले- 'आपको मेरी पराभक्ति प्राप्त है। आप मेरे दिव्य स्वरूप का दर्शन कर रहे हैं। प्राणी के परम श्रेय की यह पराकाष्ठा है। अब आपका शरीर केवल छप्पन दिन और रहेगा। आपके इस लोक से चले जाने पर समस्त ज्ञान लुप्त हो जायेगा। अत: आप से धर्म का विवेचन कराने सब लोग यहाँ आये हैं। आपको युधिष्ठिर को उपदेश करना चाहिए।' भीष्म ने फिर हाथ जोड़ा– 'सर्वसमर्थ ! आपकी बड़ी बाहें हैं। आप ही कल्याण-स्वरूप अच्युत हैं। आपकी वाणी सुनकर मैं आनन्दमग्न हो रहा हूँ। कोई देवराज के समीप देवलोक का वर्णन करे– इस प्रकार आपकी उपस्थिति में मैं उपदेश करने का साहस करूँ तो उपहासास्पद ही लगूँगा। मधुसूदन ! मेरा सम्पूर्ण शरीर बाण-विद्ध है। इससे सर्वांग में अत्यन्त पीड़ा हो रही है। इस वेदना से मन व्याकुल है। बुद्धि काम नहीं देती। अब मैं कुछ सोचने-कहने में समर्थ नहीं हूँ। मेरा बल घटता जा रहा है। जिह्वा बोलने में बड़ा कष्ट अनुभव करती है। आप मुझ पर कृपा कीजिये। आपके सम्मुख उपदेश करते देवगुरु बृहस्पति को भी लज्जा आवेगी। मैं तो केवल आपकी शक्ति से ही जीवित हूँ। मुझे अब दिशाओं का ज्ञान भी नहीं रहा। अभी सुन पाता हूँ, अत: यहीं आप युधिष्ठिर को उपदेश करें तो मेरे श्रवण भी आपकी वाणी सुनकर सार्थक हों।
आप शास्त्रों के भी शास्त्र हैं। धर्म का ठीक-ठीक रहस्य आपके अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं। आप निखिल गुरु के होते कोई भी शिष्य उपदेश करने का अधिकारी कैसे हो सकता है। ऋषि-मुनियों को इसमें भी परम प्रसन्नता थी। वे जमकर बैठे थे। भीष्म उपदेश करें या श्रीकृष्ण, शास्त्रों का रहस्य सुनने का ऐसा सुअवसर पुन: नहीं प्राप्त होना था। उनमें-से एक भी कहीं हिलने वाला नहीं था। श्रीकृष्ण ने कहा- 'तात ! आप सब विषयों के ज्ञाता हैं, अत: आपकी बात आपके ही योग्य है। आपने बाणों के लगने से होने वाली वेदना की बाधा ठीक बतलायी है। मैं वरदान देता हूँ– इसे आप अस्वीकार मत करना ! अब आपको न वेदना होगी, न दाह। मूर्छा, पीड़ा तथा क्षुधा पिपासा का कष्ट भी आपकों नहीं होगा। आपकी बुद्धि सम्पूर्ण जागृत रहेगी। सब प्रकार के ज्ञान आपके अन्त:करण में प्रकाशित रहेंगे। आप जो कुछ कहना-सोचना चाहेंगे, आपकी मेधा कहीं कुण्ठित नहीं होगी। आपका चित्त शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित रहेगा। रजस-तमस की छाया भी वहाँ नहीं पड़ेगी। आप बन्धन का मोक्ष का भी दिव्य दृष्टि से साक्षात्कार कर सकेंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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