पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. अश्वत्थामा से रक्षा
उसके हृदय में धर्म पर दृढ़ रहने का बल कभी नहीं आया और अकरणीय करने में भी उसका क्रूर हृदय कभी हिचका नहीं। जिसके हृदय में जैसे संस्कार होंगे, बाहरी निमित्तों से वह वैसी ही तो प्रेरणा लेगा। वट वृक्ष पर बहुत से कौए सो रहे थे। रात्रि में कोई उलूक आकर उन्हें मारने लगा। यह निमित्त अश्वत्थामा को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त था। उसने कृपाचार्य तथा कृतवर्मा को जगाकर बतलाया कि उसने उलूक के द्वारा यह शिक्षा ली है कि रात्रि में असावधान सोते हुए पाण्डवों और पाञ्चालों पर आक्रमण करके उन्हें मार डालना चाहिए। कृपाचार्य ने उसे बहुत समझाया। उसे धर्म तथा नीति का उपदेश किया; किन्तु जब कोई किसी असत्कार्य को करने पर उतारू हो जाता है, अपने समर्थन के लिए तर्कों का अभाव तो उसके समीप रहता नहीं। अश्वत्थामा ने कृपाचार्य का प्रतिवाद किया और रथ जोड़कर अकेले ही जाने को उद्यत हो गया। अन्तत: कृपाचार्य तथा कृतवर्मा अपने इस महासेनापति का अनुगमन करने को धर्मत: बाध्य थे। पाण्डव-शिविर के महाद्वार पर साक्षात भगवान रुद्ध मूर्तिमान उपस्थित थे। वे महाकाल अपने आप आये थे और श्रीकृष्ण के स्नेहवश वहाँ द्वार पर खड़े हो गये थे। वस्तुत: वे वहाँ असमंजस में खड़े थे। इस समय पाण्डव-शिविर में जो सो रहे थे, सबका जीवन-काल समाप्त हो चुका था। उन्हें आत्मसात करने आये थे भगवान महाकाल; किन्तु स्वयं सीधे श्रीकृष्ण के अपने कहे जाने वालों को मारना उन्हें स्वीकार नहीं था। अत: वे द्वार-रक्षक होकर खड़े हो गये थे। अश्वत्थामा आवेश में था। उसने उन रुद्र पर ही आक्रमण कर दिया; किन्तु उन्होंने केवल यह किया कि अश्वत्थामा ने जो भी आयुध उन पर चलाये उसे वे निगलते चले गये। अपनी ओर से अश्वत्थामा पर कोई आघात उन्होंने नहीं किया। अश्वत्थामा के सब अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वह स्तुति करने लगा। इस पर भी जब भगवान रुद्र चुप खड़े रहे तो अश्वत्थामा ने उन्हें आत्मबलि देने का निश्चय किया। अश्वत्थामा निराश हो गया था। वह समझता था कि इस रात्रि में असावधान, थके, बहुत कुछ घायल शत्रुओं को भी वह मार नहीं सका तो फिर कुछ नहीं कर सकेगा। पाञ्चालों को समाप्त कर देने की वह दुर्योधन के सामने शपथ ले चुका था, आज वह प्रतिज्ञा पूरी न हुई तो कभी नहीं होगी। ऐसा असफल जीवन लेकर वह क्या करेगा। वहाँ एक वेदी दीख गयी उसे। उस पर थोड़े काष्ठ एकत्र करके उसमें अग्नि लगाकर वह बैठ गया प्रज्वलित अग्नि में- 'इमं शरीरं शिवाय स्वाह: !' वह शतरुद्री का पाठ कर रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज