पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. पाण्डव ही क्यों
पाण्डवों में सबसे बलवान भीमसेन को मार देने के लिए विष दे दिया कौरवों ने। अन्त में तो उन्हें लाक्षागृह भेजकर उस घर में अग्नि ही लगा दी। स्थिति इतनी विकट थी कि धर्मात्मा विदुरजी सब कुछ जानते हुए भी स्पष्ट सूचना पाण्डवों को नहीं दे सकते थे। उन्होंने भी उनकी रक्षा का प्रयत्न स्वयं उनसे भी छिपकर ही किया। भीष्म पितामह भी धृतराष्ट्र का विरोध करने में असमर्थ थे और दुर्योधन उनका अपमान न कर बैठे, इससे आशंकित रहते थे। देवी कुन्ती तथा उनके पुत्रों के लिए कहीं कोई सहायक, कोई आश्वासन नहीं था और वे विरोधियों से- प्राणघात पर उतारू विरोधियों से घिरे थे। ऐसी असहायावस्था में उन्होंने श्रीकृष्ण की शरण ली। देवी कुन्ती ने अक्रूर के द्वारा अपनी प्रणति का सन्देश भेजा और उन सर्वात्मा को सन्देश तो नहीं भेजना पड़ता। पाण्डव सर्वात्मा श्रीकृष्ण पर निर्भर थे। उन्होंने अपने को पूर्णत: भगवान वासुदेव पर छोड़ दिया था। एक अक्षौहिणी शस्त्र-सज्ज सेना का त्याग करके अर्जुन ने बिना हिचक शस्त्रहीन श्रीकृष्ण को चुना महाभारत जैसे युद्ध के अवसर पर और प्रसन्न हुआ कि उसे इस चुनाव का सुयोग प्राप्त हुआ। पाण्डव भूभार-हरण के लिए उपयुक्त थे, पाण्डव धर्म-स्थापना के उपयुक्त पात्र थे और ज्ञान पाने के अधिकारी नर के अवतार अर्जुन ही थे जो सम्पूर्ण जीवों के प्रतिनिधि माने जा सकें, यह सब बातें सत्य हैं। अपने स्थान पर ठीक हैं; किन्तु सबसे बड़ी बात कि पाण्डव सर्वात्मा मधुसूदनाश्रित थे। उन्होंने सम्यक् समर्पण कर रखा था और इसीलिए उन सर्वेश्वर के वे सर्वाधिक अनुग्रह भाजन बन सके। श्रीकृष्ण सर्वथा उनके हो गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने अक्रूर को हस्तिनापुर भेजकर मानो यह स्पष्ट कर दिया कि वे अपनों से, अपने आश्रितों से उदासीन नहीं रहा करते। उनको पुकारने, उन तक सन्देश भेजने की आवश्यकता नहीं होती। आवश्यकता इतनी होती है कि जीव अपनी और जगत की आशा छोड़कर एक मात्र उन सर्वाश्रय की ओर देखे। उनकी कृपा के अवतरण के लिए इतनी ही पृष्ठभूमि चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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