पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. अक्रूर आये
धृतराष्ट्र ने कहा, ‘दानाध्यक्षजी ! आप जो कहते हैं, वह आपकी वाणी कल्याणकारिणी है। इस अमृतोपदेश को सुनने से मेरी तृप्ति नहीं हो रही है, किन्तु सौम्य ! मेरा चित्त चंचल है और अपने पुत्रों के अनुराग से युक्त है। उसमें यह उपदेश टिकता नहीं है। इसलिए मैं आपको कोई आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हूँ।’ धृतराष्ट्र ने परिणाम के सम्बन्ध में भी कह दिया- ‘मैं जानता हूँ कि भूमि का भार दूर करने लिए यदुवंश में भगवान पुरुषोत्तम अवतीर्ण हुए हैं। वे जो करना चाहते हैं, उसे अन्यथा कौन कर सकता है। इस कुल के सम्बन्ध में उनका जो विधान होगा, उसे मैं टालने में असमर्थ हूँ। उनकी माया की गति अचिन्त्य है। अपनी माया से त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करके इसमें प्रविष्ट होकर वे स्वयं इस संसार-चक्र का सञ्चालन कर रहे हैं। उन दुर्बोध गति परमेश्वर को मेरी प्रणति।’ धृतराष्ट्र की इस स्पष्ट स्वीकृति के पश्चात् अक्रूर के लिए कहने–समझने को कुछ रह गया ही नहीं था। हस्तिनापुर से उन्होंने विदुरजी, देवी पृथा, पाण्डु पुत्र, भीष्मादि सबसे मिलकर विदा ली। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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