पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. अक्रूर आये
अक्रूर ने कहा, ‘राजन् आपको कुरुवंश की कीर्ति को बढ़ाने वाला होना चाहिए। यह सिंहासन आपके भाई पाण्डु का है। उनके परलोक वासी होने से यह आपको प्राप्त हुआ। राजा को धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करना चाहिए। उसको अपना चरित ऐसा रखना चाहिए कि प्रजा उसका अनुकरण करके श्रेष्ठ बने। अपनों के प्रति पक्षपात न करके समत्व का व्यवहार करने वह उत्तम कीर्ति पाता है। इसके विपरीत आचरण करने पर वह अधोगति प्राप्त करता है। अत: अपने पुत्रों और पाण्डवों के प्रति आप समत्व का व्यवहार करें।’ इतना उलाहना पर्याप्त था। स्पष्ट कर दिया कि पाण्डु-पुत्रों के प्रति आपका व्यवहार उचित नहीं है और इससे आपकी अपकीर्ति हो रही है। ‘यहाँ किसी का किसी के साथ भी नित्य-संयोग नहीं रहा करता।’ अक्रूर ने समझाया- ‘स्त्री–पुत्रादि की तो बात ही क्या है, अपना शरीर भी साथ नहीं देता। इसे भी छोड़ना पड़ता है। जीव अकेला संसार में आता है और यहांँ से अकेला ही जाता है। उसे अपने पुण्य और पाप का फल अकेले ही भोगना पड़ता है। अधर्म से उपार्जित उस अल्प बुद्धि का धन दूसरे छीन लेते हैं, जैसे जलाशय में एक मछली को दूसरी खा जाती है।’ ‘अविवेकी पुरुष अपनी शक्ति, बुद्धि लगाकर जिन पुत्र, पत्नी तथा शरीर को अधर्म पूर्वक पोषित करता है, वे उसे सन्तुष्ट किये बिना ही त्याग देते हैं। उनके द्वारा परित्यक्त होकर वह अपने धर्म से विमुख अपने सच्चे हित को न समझने वाला अपने पापों को लेकर तमस् में नरकों में प्रवेश करता है। इसलिए इस लोक को स्वप्न के समान, कल्पना के समान मायिक समझकर आप अपने आप ही अन्त:करण को नियन्त्रित करके शान्त तथा समत्व को प्राप्त करें।’ इस उपदेश में मृत्यु और उसके पश्चात् के परिणाम की स्पष्ट चेतावनी दी अक्रूर ने। धृतराष्ट्र ने इस चेतावनी का बुरा नहीं माना। उन्होंने अपने व्यवहार को उचित सिद्ध करने का भी प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने इसे अपनी दुर्बलता स्वीकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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