पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
63. आग्नेयास्त्र निष्प्रभाव
’बात बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। शान्त होकर सुनों।’ भगवान व्यास ने कहा- 'अर्जुन का नन्दिघोष रथ उन्हें अग्निदेव ने अश्वों के साथ दिया था। अग्निदैवत अस्त्र की ज्वाला उसे कैसे जला देती ? तुम्हें इतना भी पता नहीं कि उस रथ की ध्वजापर जो वानर है, वह कौन है? वे साक्षात अनिलात्मज- सम्पूर्ण लंका उन्होंने त्रेता में जला दी उनका एक रोम भी नही जला।’ व्यासजी ने बहुत गम्भीर होकर कहा- 'बहुत पहिले भगवान ब्रह्मा सुरों और ऋषियों के साथ भूभार हरणार्थ प्रार्थना करने मन्दराचल पर आये थे। उन पर कृपा करके भगवान नारायण ने दर्शन दिया और उन्हें पृथ्वी पर अवतार लेकर धरा का भार दूर करने का आश्वासन दिया। श्रीकृष्ण साक्षात परमपुरुष नारायण हैं और उनका प्रिय सखा अर्जुन नर है। ’अश्वत्थामा ! तुमने अपने पिता अथवा अन्य किसी महर्षि के मुख से श्रीकृष्ण चरित नहीं सुना ? ब्रज में दो बार इन्होंने दावाग्नि पान कर लिया था। यह तो श्रीकृष्ण का अनुग्रह कि तुम्हारे अमोघास्त्र का सम्मान रखने के लिए उन्होंने एक अक्षौहिणी सेना को भस्म हो जाने दिया। यह भी उनके भू-भार हरण का ही कार्य था। अन्यथा वे संकल्प करते तो आग्नेयास्त्र एक तृण भी जलाने में समर्थ नहीं था अथवा वे सर्वसममर्थ चाहते तो वह अस्त्र उसी समय तुम पर और तुम्हारी सेना पर भी उल्टा आ सकता था। वे अस्त्रो के मन्त्र एवं देवताओ के सम्मान न रखते होते -उन साक्षात नारायण के विरुद्ध उनके ही अस्त्र का उपयोग करने की धृष्टता करके तुम आग्नेयास्त्र का प्रयोग करने को बचे रहते ?’ अश्वत्थामा भय से काँप उठा। उसके शरीर का रोम-रोम खड़ा हो गया। वह जानता है कि मन्त्र प्रेरित अस्त्र प्रयोक्ता के संकल्प का अनुगमन करता है, किन्तु प्रबलतम संकल्प प्रयोक्ता के संकल्प को अभिभूत कर ले तो अभिचार को वैसे लौटा जाता है, अस्त्र भी तो लौटाया जा सकता है। ’श्रीकृष्ण अविनाशी हैं।’ भगवान व्यास नें कहा -'उन परमपुरुष को पराभव देना संभव नहीं है। उनके आश्रित, उनके द्वारा संरक्षित जनों को कोई दिव्यास्त्र अथवा देवता मार नहीं सकता।' अश्वत्थामा ने भगवान व्यास के चरणों में प्रणाम किया। वह सिर झुकाये समर भूमि की ओर लौट पड़ा। अज्ञानी जीव का स्वभाव ही है कि वह परमात्मा के प्रभाव, कृपा आदि को बार-बार सुनता है; किन्तु उसका कोई भी अंश धारण नहीं कर पाता। वह शीघ्र ही सब भूल जाता है। अतः यदि अश्वत्थामा भी व्यासजी का उपदेश शीघ्र भूल गया तो आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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