पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
63. आग्नेयास्त्र निष्प्रभाव
सहसा वह आग्नेयास्त्र एवं उससे निकले सम्पूर्ण बाण अदृश्य हो गये। दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं। वायु शीतल चलने लगी। जल का खौलना समाप्त हो गया, किन्तु पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना इस प्रकार भस्म हो गयी थी कि वहाँ भूमि पर केवल श्वेत भस्म मात्र शेष थी। अश्व, रथ, गज अथवा सैनिकों के अस्त्र–शस्त्र के चिह्न भी नहीं बचे थे। लेकिन श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा उनके रथ के किसी भाग को कोई स्वल्प क्षति भी नहीं हुई थी। ज्वाला शान्त होने पर नन्दिघोष रथ अपने अश्व, ध्वजा, पताकादि से वैसे ही सुशोभित था। कपिध्वज रथ को सकुशल, सुरक्षित देखकर पांडवों के हर्ष की सीमा नहीं थी। वे तथा अर्जुन और श्रीकृष्ण भी शंखनाद करने लगे। अश्वत्थामा तो हक्का-बक्का थोड़ी देर स्तब्ध बैठा रह गया। उसकी समझ में ही नहीं आता था कि यह कैसे संभव हुआ। आश्चर्य का आवेग समाप्त होते ही अश्वत्थामा ने अपने हाथ का धनुष फेंका और -'धिक्कार हैं ! धिक्कार हैं ! यह सब मन्त्र, दिव्यास्त्रादि मिथ्या है।' यह चिल्लाता हुआ युद्धभूमि से भगा खड़ा हुआ। अब उसमें अर्जुन की ओर देखने का भी साहस नहीं रहा था। उसे लगता था कि अब रुका तो अवश्य अर्जुन अपने किसी दिव्यास्त्र से मार ही देगा। आप अपने अपराधी को क्षमा कर दे सकते हैं, किन्तु जिसने आपका अपराध किया है, वह आपको क्षमा नहीं करेगा। पापी को उसका पाप ही भयभीत बना देता हैं। अश्वत्थामा को अपने दिव्यास्त्रों का अत्यधिक गर्व था। इतने महान अस्त्र को निष्प्रभाव देखकर उसे अपनी मृत्यु का भय लगा। पैदल भयाक्रान्त अश्वत्थामा भागता जा रहा था। अचानक भगवान व्यास सामने मिल गये। उनको प्रणाम करके अत्यन्त दीन स्वर में उसने पुछा -'भगवन ! इसे माया कहें या दैवेच्छा, मेरी समझ में कुछ नहीं आता है।’ 'बात क्या है ?’ व्यासजी ने हँसकर कहा -'तुम इतने व्याकुल क्यों भाग रहे हो ?’ मेरे द्वारा प्रयुक्त अमोघ आग्नेयास्त्र केवल एक अक्षौहिणी सेना को भस्म करके शान्त कैसें हो गया ?’ अश्वत्थामा ने पूछा- 'मैने उसे समस्त प्रत्यक्षपरोक्ष शत्रुओं के संहार के संकल्प से छोड़ा था। मुझसे कोई भूल हुई अथवा संसार के नियमों में किसी महान परिवर्तन की यह सूचना है ? होना तो यह चाहिए था कि सभी पाण्डव सेना सहित भस्म हो जातें; किन्तु अस्त्राग्नि के मध्य में रहकर भी श्रीकृष्ण, अर्जुन अपने रथ सहित सुरक्षित कैसे रह गये ?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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