पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. सचिन्त श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण चाहें, ये सम्मुख हों तो किसी का शोक टिका करता है। सुभद्रा ने नेत्र पोंछ लिये- 'भैया ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। सबका श्रेय तुम्हारे ही हाथों में सुरक्षित है। तुम वही करते हो, जिसमें तुम्हारे चरणाश्रितों का आत्यन्तिक हित हो। मैं भूल रही थी कि अभिमन्यु मेरा था। वह तो तुम्हारा ही था। तुम्हारा स्नेह भाजन था। तुमने जिसमें उसका श्रेय समझा, वही उचित था।' श्रीकृष्ण ने उत्तरा की ओर देखा- 'बहु ! टपने को सम्हाल लो। तुम इस कुरुवंश की माता हो चुकी हो। अभिमन्यु की धरोहर की सुरक्षा का दायित्व आ गया है तुम पर। उसकी ओर से उदासीन मत बनो।' बाल-विधवा उस बालिका ने सिमटे हुए ही भूमि पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। वह अपने सगे श्वसूर के इन सखा, अपने पति के इन स्नेहमय मामा को अपने मानस में सदा पूजती रही है। पति ने एकान्त में इनका ही तो निरन्तर सुयश सुनाया है। इनके सम्मुख उसका संकोच उसे बोलने भले न दे किन्तु इनका आदेश, इनका दिया दायित्व तो उसका सर्वस्व है। वह जीवित रहेगी, इनकी आज्ञा का पालन करने के लिए जीवित रहेगी। उसे अपने शोक को समाप्त ही करना चाहिए। ‘कृष्णे ! इनको लेकर तुम लौटो। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की ओर देखा- ‘विजय की प्रतिज्ञा सुन ही चुकी हो। कल क्या होगा, कौन कह सकता है। अभिमन्यु की उत्तर क्रिया तो अब यदि अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लेते हैं तो उसके पश्चात होगी। स्वयं अर्जुन के लिए आशंका है, यह बात वहाँ साभिप्राय कही गयी थी। इससे सुभद्रा, उत्तरा का भी ध्यान आसन्न विपत्ति की ओर चला गया और जो घट चुका था उसका शोक ही घट गया। द्रौपदी ने कहा- कल के सम्बन्ध में मुझे कोई चिन्ता नहीं है। गाण्डीव धन्वा के रथ की रश्मि तुम्हारे हाथों में रहती है, इसलिए वे चाहे जो प्रतिज्ञा कर लेने को अपने को स्वाधीन मानते हैं। वे भले भूल करते हों, उसका सुधार लेने में तुम असमर्थ नहीं हो।' द्रौपदी सब स्त्रियों को लेकर उसी समय उपप्लव्य के शिविर में चली गयी किन्तु श्रीकृष्ण की चिन्ता इतनी ही तो नहीं थी। वे वहाँ से अर्जुन के शिविर के शयन-कक्ष में पहुँचे। हाथ धोकर आचमन किया और अपने हाथ से वेदी पर कुशों की शय्या बिछायी। अक्षत, गन्ध, पुष्पमाल्य, सुमन आदि से उसे सजाया। इतना करके अर्जुन को आचमन करने को कहा। आचमन करके अर्जुन बैठ गये तब श्रीकृष्ण के आदेश से सुशिक्षित सेवकों ने सब साम्रगी एकत्र की और वहाँ भगवान शंकर का सविधि-निशीथ पूजन हुआ। पूजन सम्पन्न करके अर्जुन ने प्रसाद स्वरुप चन्दन, माला आदि से श्रीकृष्ण को अलंकृत किया और पूजन में प्रयुक्त समस्त उपहार तथा पूजन का फल भी श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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