पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. सचिन्त श्रीकृष्ण
‘एतत् सर्वं अस्योपासनफलं च श्रीकृष्णर्पणमस्तु।' कहा अर्जुन ने तो सस्मित वे कैटभार्दन बोले- विजय ! तुम्हारा मंगल हो। आज इसी शय्या पर शयन करो। मैं तुम्हारे कल्याण कार्य में ही लगने जा रहा हूँ। वहाँ सशस्त्र रक्षक तो सदा रात्रि में रहते थे किन्तु श्रीकृष्ण ने उस दिन अधिक प्रहरी नियुक्त किये और उनको विशेष रुप से सावधान रहने को सतर्क करके तब अपने शिविर में आये। उस दिन पाण्डव-शिविर में अकेले अर्जुन ही निश्चिन्त सोये। जिसके लिए श्रीकृष्ण सचिन्त जग रहे हों, वह चिन्ता क्यों करे। लेकिन शेष सब लोग कल की चिन्ता और चर्चा में जागते रहे रात्रिभर। कौरव-शिविर में तो कोई सो ही कैसे सकता था। दुर्योधन समझता था कि कल जयद्रथ को बचा लिया तो अपनी विजय सुनिश्चित हो गयी। वह द्रोणाचार्य, कर्ण, कृप प्रभृति सबके यहाँ सबको उत्साहित करता घूमता रहा। आचार्य द्रोण रात्रिभर सैनिकों का व्यूह बनाते रहे और स्वयं उस व्यूह का निरीक्षण करते रहे। कोई उस समय कहाँ जानता था कि यह तृतीय दिन की रात्रि का जागरण कितनों का काल बनेगा और कल की रात्रि भी युद्ध करते ही बीतनी है। अब युद्ध तो जयद्रथ की ही नहीं, स्वयं आचार्य द्रोण ही आहुति लेकर विरमित होगा। अर्जुन को निश्चिन्त सो जाने के लिए कहकर श्रीकृष्ण अपने शिविर में आये। वे भी विश्राम करने लेटे किन्तु कुछ ही क्षणों में बैठ गये और दारुक को बुलाकर समीप बैठा लिया। उस रात्रि के निशीथ में श्रीकृष्ण के आन्तरिक उद्गार का साक्षी उनका यह एकमात्र सारथि बना जो उनका अन्तरंग आत्यन्तिक सेवक था। उन अन्तर्यामी ह्रषीकेश ने मानो पार्थ के प्रेमावेश में प्रलाप प्रारम्भ किया- ‘दारुक ! अपने पुत्र अभिमन्यु को मृत्यु से शोकारा पार्थ ने जो प्रतिज्ञा कर ली है उसे तुमने सुना ही है। दुर्योधन कल जयद्रथ को रक्षा के लिए कुछ नहीं उठा रखेगा। उसकी सब सेना, सब महारथी कल इसका प्राणपण से प्रयत्न करेंगे। द्रोणाचार्य से सुरक्षित जयद्रथ को मार देना वज्रधर इन्द्र के लिए समस्त सुरों की सहायता होने पर भी शक्य नहीं है किन्तु अर्जुन की प्रतिज्ञा कल पूरी होनी ही चाहिए। ‘मुझे स्त्री-पुरुष, स्वजन-सम्बन्धी कोई भी अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी देख नहीं सकता। मेरे रहते अर्जुन का अनिष्ट कोई कर नहीं सकेग। ‘आवश्यकता हुई तो मैं अर्जुन के लिए कर्ण, दुर्योधन आदि समस्त शत्रुओं का स्वयं संहार कर दूंगा। इतना कहते-कहते श्रीकृष्ण के स्वर में आवेश आ गया। उनके नेत्र अरुण हो उठे- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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