पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. द्रौपदी भीष्म-शिविर में
यह बात दुर्योधन के गले उतर नहीं सकती थी। वह वहाँ से चुपचाप उठकर अपने शिविर में चला आया। युद्ध को बन्द नहीं होना था, नहीं हुआ। पांचवे दिन भी युद्ध का पलड़ा पाण्डवों के पक्ष में ही भारी रहा। छठवें दिन भी यही हुआ और सातवें दिन भी यही हुआ। सातवें दिन यद्यपि अर्जुन का पुत्र इरावान मारा गया; किन्तु धृतराष्ट के आठ पुत्र और शकुनि के सब भाई खेत रहे। घटोत्कच के आक्रमण से दुर्योधन की प्राण रक्षा बड़ी कठिनाई से हुई। आठवें दिन भी भीमसेन ने दुर्योधन के अनेक भाइयों को यमलोक भेज दिया। यद्यपि भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार प्रतिदिन प्रतिपक्ष के दस सहस्र शूरमार देते थे किन्तु अर्जुन, भीमसेन, घटोत्कच आदि के द्वारा कौरव पक्ष का संहार इससे कई गुना अधिक हो रहा था। इस संहार तथा अपने भाइयों के मारे जाने से व्याकूल दुर्योधन ने कर्ण से मन्त्रणा की और रात्रि में महासेनापति भीष्म के समीप द्रौपदी भीष्म-शिविर में जाकर बोला- 'पितामह! आपका आश्रय पाकर हम सुरेन्द्र सहित समस्त सुरों को जीत लेने की आशा रखते हैं, फिर पाण्डवों की तो गणना ही क्या है, किन्तु यदि पाण्डवों पर दया तथा प्रेम के कारण और मेरे प्रति मेरे मन्दभाग्य से द्वेष के कारण आप पाण्डवों की रक्षा कर रहे हो तो अपने स्थान पर कर्ण को युद्ध करने की आज्ञा दें। वह अवश्य उन्हें परास्त कर देगा।' दुर्योधन ने हाथ जोड़कर, नेत्रों से अश्रु गिराते हुए बहुत व्याकुल होकर विनम्रता से यह बात कही थी। उसकी व्यथा, निराशा स्पष्ट थी। लेकिन उसके वचन वाण के समान थे। उनसे दुःखित होकर पितामह कुछ देर मौन बने रहे। वे लम्बी श्वांस लेते रहे। उनके जैसे सम्मानित शूर को सेनापतित्व त्यागकर यह भार दूसरे को देने को कहा गया था। इसका अर्थ था कि वे अपनी असमर्थता, असफलता, पराजय स्वयं स्वीकार कर लें और वह भी कर्ण के सम्मुख, जिसे वे सदा सूतपुत्र, अर्धरथी कहकर तिरस्कृत करते आये हैं। भीष्म बोले तो उन्होंने पहिले दुर्योधन को झिड़की दी- 'तुम भूल जाते हो कि अकेले अर्जुन को इन्द्र को परास्त करके खाण्डववन अग्नि को भेंट कर दिया है। कहाँ गया था कर्ण का पौरुष जब गन्धर्वों ने तुम्हें बन्दी बना लिया था। विराटनगर के युद्ध में ही तुम सबके साथ कर्ण था और अर्जुन से हारकर भाग खड़ा हुआ था। तुमसे कईबार मैंने कहा, देवर्षि नारद ने कहा कि श्रीकृष्ण स्वयं सनातन परमात्मा हैं। उनसे संरक्षित अर्जुन अजेय हैं; किन्तु तुम मोहवश कुछ समझते ही नहीं हो।' दुर्योधन मस्तक झुकाये पितामह की झिड़की सुनता रहा। अन्त में भीष्म ने अपने त्रोण में से पांच वाण निकाले और एकबार ऊपर देखकर बोले- 'सुनो ! शिखण्डी पहिले स्त्री के रूप में उत्पन्न हुआ था। वरदान के प्रभाव से पीछे भले वह पुरुष हो गया, मेरी दृष्टि में वह स्त्री ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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