पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. द्रौपदी भीष्म-शिविर में
मेरे प्राणों पर आ बने तो भी मैं उस पर हाथ नहीं उठाऊंगा। उसे तुम लोग मुझ से दूर रख सको तो कलके युद्ध की चर्चा कल्पान्त तक पृथ्वी पर होगी। कल मैं सोमक तथा पांचाल वीरों के साथ इन वाणों से पाण्डवों का वध कर दूंगा।' 'यदि ऐसा न हो सका तो ?' सहसा दुर्योधन के मुख से निकल गया। भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा सुनकर वह अत्यन्त उत्साहावेश में आ गया था और उस प्रतिज्ञा को पुनः पुष्ट करा लेना चाहता था। 'भीष्म की प्रतिज्ञा पर भी सन्देह ?' पितामह का आवेश शान्त हो गया। वे बहुत शान्त शिथिल स्वर में बोले- 'सुयोधन ! यह सन्देह कहता है कि श्रीकृष्ण का विधान कुछ और है। उनके विधान को कोई अन्यथा नहीं कर सकता। ऐसा न होता तो तुम्हारे मन में मेरी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में भला सन्देह उठता। मैं प्रतिज्ञा में अपवाद स्वीकार करता हूँ। यदि ऐसा न हो सका तो स्वयं श्रीकृष्ण को कल फिर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ेगी और पाण्डवों की रक्षा के लिए अधिक सचिन्त होना पड़ेगा। अब तुम जाओ।' दुर्योधन बहुत उत्साहित होकर लौटा। उसने अपनी सेना मे सर्वत्र घोषणा करा दी- 'पितामह ने कल पांचों पाण्डवों को मार देने की प्रतिज्ञा कर ली है।' दुर्योधन ने प्रतिज्ञा में जो अपवाद पितामह ने स्वीकार किया था, उसकी किसी से चर्चा नहीं की। वह प्रतिज्ञा को पुष्ट कर देना चाहता था। उसकी सेना में सर्वत्र उत्साह छा गया। सब एक दूसरे से इसी प्रतिज्ञा की चर्चा करने लगे। लेकिन भीष्म को इस प्रचार का कोई पता नहीं था। वे आवेश में प्रतिज्ञा तो कर गये थे; किन्तु स्वयं उससे अत्यन्त दुःखी हुए। अपवाद स्वीकार करके मानो उन्होंने अपने आपको ही वरदान दिया था। दुर्योधन के जाते ही वे ध्यान करने बैठ गये और श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हुए मन ही मन प्रार्थना करने लगे- 'भक्तवत्सल ! दयामय ! पाण्डवों की रक्षा तो आप करोगे ही। इस अपने धृष्ट सेवक की इस धृष्टता को क्षमा कर देना मेरे परमोदार स्वामी !' दुर्योधन के द्वारा प्रचारित पितामह भीष्म की प्रतिज्ञा का समाचार गुप्तचरों ने पाण्डव-शिविर में भी पहुँचाया। सुनते ही युधिष्ठिर, अर्जुन, भीमसेनादि के मुख सूख गये। धर्मराज सबको लेकर श्रीकृष्ण के समीप पहुँचे किन्तु वहाँ से भी कोई आश्वासन नहीं मिला। उन मधुसूदन ने भी मुख लटकाकर कह दिया- 'पितामह ने प्रतिज्ञा कर ली है तो वह मिथ्या नहीं हो सकती। क्षत्रिय के लिए सम्मुख संग्राम में शरीर-त्याग विजय से कम वरेण्य नहीं है। अतः कल मरण का महापर्व मनाने के लिए सबको सन्नद्ध ही रहना है। मैं भी सबका साथ दूंगा। जो दान, जप, ध्यान करना हो, आज रात्रि में ही सब कर लें।' पाण्डवों के लिए जब श्रीकृष्ण ही आश्वासन न दें तो और क्या आशा। लेकिन उन्होंने सचमुच शोक त्यागकर उत्साह से मृत्यु का स्वागत करना निश्चित किया। उसी समय ब्राह्मण बुलाये गये। उन्हें अपार दान मिलने लगा। वे आशीर्वाद देने लगे-'विजयी भव !' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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