पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. प्रण-भंग
युद्धभूमि है- शवों से, शस्त्र खण्डों से पटी संग्राम भूमि रक्त की कीच से सनी और उसमें बिना नीचे देखे पद्मारूण सुकुमार चरण श्रीकृष्ण दौड़ रहे हैं। उनके प्रत्येक पदाघात से पृथ्वी कांप रही है। भूकम्प आ रहा है। जैसे विदीर्ण होकर धरा खण्ड-खण्ड हो जायेगी। क्रुद्ध कैटभारि की भयंकर भृकुटि की ओर देख सके इतना साहस महाकाल में भी नहीं, इस समय शत्रु सैनिक ही नहीं, साक्षात मृत्यु को भी पता है कि सम्मुख जाने पर सुदर्शन की महाज्वाला रूई के समान भस्म कर देगी। लोग भय से कांप रहे हैं। कातर कण्ठ से कोई स्पष्ट पुकार भी नहीं उठती। भीष्म के बचाव के प्रयत्न की बात व्यर्थ किसी को भी अपने ही प्राण बचेंगे, इसका विश्वास नहीं रहा। सबके हृदय धक से रह गये- 'श्रीकृष्ण ने प्रण भंग करके चक्र उठा लिया! अब भला क्या आशा ! केवल एक व्यक्ति स्वस्थ थे और सीधे ही देख रहे थे-भीष्म ! निर्भय थे। जिन भीष्म के ऊपर क्रुद्ध होकर श्रीकृष्णचन्द्र चक्र उठाये उन्हीं की ओर दौड़े जा रहे थे वे निर्भय धनुष उठाये, उसकी प्रत्यंचाकी टंकार करते हर्ष विह्वल स्वर में बोल रहे थे- 'भक्तवत्सल भगवान की जय हो ! प्रणत प्रणपाल पुरुषोत्तम की जय हो ! पधारो चक्रपाणी प्रभु ! आप आओ और अपने चक्र से इस दुर्विनीत का मस्तक काटकर इसे धन्य कर दो ! आओ और आज अपने हाथ से मारकर भीष्म को सदा के लिए भव-भ्रमण से मुक्त कर दो। स्वयं मुझे मारने आकर आपने मुझे त्रिभुवन में गौरवान्वित कर दिया। आपके हाथों मारा जाकर मैं परमपावन हो जाऊंगा। मुझे मार गिराओ मेरे माधव!' भीष्म स्तवन कर रहे थे। उनके शरीर में रोमांच हो रहा था। उनके नेत्रों से अश्रुधारा झर रही थी और श्रीकृष्ण क्रोध से अरुण सुकुमार अधरों को दांतों से दबाये, पीताम्बर फहराते चक्र उठाये दौड़े आ रहे थे। यह क्या था? कोई पूछे कि आपको इससे पूर्व भी कभी चक्र उठाकर दौड़ना पड़ा है? चक्र भी कोई तलवार है कि उसके पास जाकर प्रहार करना आवश्यक हो। चक्र तो जहाँ आप हैं, वहीं से चलाया जाने वाला अस्त्र है। जब चक्र ही उठा लिया तो फिर यह दौड़ना क्यों ? इस दौड़ने का क्या अर्थ ? इस दौड़ने का अर्थ है। इसका अर्थ है कि चक्र चलाना नहीं है। चक्र उठाये दौड़ते श्रीकृष्ण सबको दिखला रहे हैं- 'सब देखो। कोई धोखे में मत रहो। मेरा भक्त बड़ा है, भगवान बड़ा नहीं है। भक्त प्रतिज्ञा कर लेता है तो रथ पर बैठे-बैठे उसकी प्रतिज्ञा पूरी हो जाती है। उसे पूरी करने के लिए उसे वाहन से नीचे भी नहीं उतरना पड़ता। उसके सम्मुख, उसके विरुद्ध प्रतिज्ञा पड़े भगवान की भी तो वह प्रतिज्ञा टूटती है। वाहन त्यागकर, पैदल दौड़कर भी भगवान अपनी प्रतिज्ञा नहीं बचा पाता। भक्त की प्रतिज्ञा की रक्षा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भी कैसे कृष्ण करता है, इसे सब लोग स्पष्ट देख लें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज