पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. प्रण-भंग
तीसरे दिन के दूसरे प्रहर का समय था। विजयी पाण्डव प्रसन्न हो रहे थे। सहसा कौरव सेना लौट पड़ी। अत्यन्त भयंकर संग्राम प्रारम्भ हो गया। भीष्म ने इस समय जो पराक्रम प्रकट किया, वह कल्पना से परे है। वे इतने वेग से युद्ध भूमि में विचरण करने लगे कि लगा मानो अनेक रूप उन्होंने बना लिये हों। युद्ध में सर्वत्र वे ही दीखने लगे। पाण्डव पक्ष में हा-हाकार मच गया। भीष्म के धनुष से असंख्य वाण छूट रहे थे। सहस्र-सहस्र वीर मरकर गिरने लगे, पाण्डव सेना इधर-उधर भागने लगी। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उत्साहित किया- 'अब समय आ गया है कि पूरा उत्साह प्रकट करो। तुमने भीष्म, द्रोणादि को मारने की सबके सामने प्रतिज्ञा की है। उसे सत्य करो। अपनी भागती सेना को भीष्म का वेग रोककर बचाओ। मोहवश शिथिलता का त्याग नहीं करोगे तो प्राणोंपर आ बनेगी।' अर्जुन ने-भीष्म के सम्मुख रथ पहुँचाने को कह दिया किन्तु पितामह पर प्रहार करने के लिए वह अन्तःकरण से उद्यत नहीं था। भीष्म ने तो प्रतिज्ञा कर रखी थी- 'आज श्रीकृष्ण को प्रण-भंग करके शस्त्र उठाने पर विवश न कर दूं तो माता गंगा की कुक्षि लज्जित हो और मैं अपने पिता शान्तनु का पुत्र नहीं।' अर्जुन ने-भीष्म की वाण वर्षा का उचित उत्तर दिया। उनके धनुष भी काट दिये, किन्तु पितामह आज अत्यन्त प्रचण्ड हो रहे थे। उन्होंने अर्जुन तथा श्रीकृष्ण को भी आहत कर दिया। पाण्डव सेना उनकी मार से व्याकूल होकर भागने लगी। अकेले सात्यकि अर्जुन की सहायता में खड़े थे। उन्होंने भागते लोगों को ललकारा- 'युद्ध में भागना क्षत्रिय का धर्म नहीं है। वीर धर्म का पालन करो। कायर मत बनो।' अर्जुन शिथिल हो रहे थे। वे केवल प्रतिकारका प्रयत्न कर रहे थे। पितामह पर प्रहार वे जब नहीं कर रहे थे। यह देखकर श्रीकृष्ण क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने सात्यकि से कहा- 'महावीर सात्यकि ! जो भाग रहे हैं, उन्हें भाग जाने दो। जो खड़े हैं, वे भी चाहें तो चले जायें। मैं इनमें किसी का भरोसा नहीं करता। तुम धन्य हो ! तुम्हारा शौर्य श्लाध्य है, किन्तु अब तुम भी देखो ! मैं भीष्म और द्रोणको मार दूंगा। कोई कौरव महारथी मेरे हाथ से बच नहीं सकता। आज ही कौरवों का संहार करके मैं अजातशत्रु युधिष्ठिर का अभिषेक करूंगा।' श्रीकृष्णने अश्वों की रश्मि छोड़ दी और अपना अमोघ सुदर्शन चक्र उठाये रथ से कूद पड़े। सहस्र-सहस्र सूर्यों के समान वह प्रकाशघन महाचक्र घूम रहा था। परात्पर परमतत्त्व के दौड़ने के वेग से धरा कांपने लगी। दोनों ही पक्ष के लोगों के नेत्र उस प्रचण्ड तेज से बन्द हो गये। भय के कारण अस्त्र-शस्त्र हाथों से छूट गये। गज, अश्व चीत्कार करते भाग खड़े हुए। सर्वत्र लोग हाथ उठाकर हा-हाकार करने लगे। शरीर स्वेद लथपथ कांपने लगे। किसी को कुछ सूझता नहीं था। भय के कारण पूरी सेना स्तब्ध जड़ बन गयी। ऐसे हो गये लोग जैसे उनके शरीर में रक्त ही न रह गया हो। घनश्याम श्रीअंग पर स्थान-स्थान पर शराघात के व्रण और उनसे झलकता रक्त। स्वेद के बिन्दु मुख और भाल पर। अरुण नेत्र, क्रोध से लाल मुख, प्रलयंकर चक्र घर्र-घर्र उठे करोंमें घूम रहा। पीतपट फहरा रहा और श्रीकृष्ण दौड़ रहे-दौड़ते जा रहे हैं भीष्म के रथ की ओर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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