पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
भगवान ने स्पष्टीकरण किया — कर्म सन्यास और कर्म योग दोनों परम कल्याणकारी है किन्तु कर्म-सन्यास से कर्मयोग विशिष्ट है। जो किसी से द्वेष नहीं करता, कुछ नहीं चाहता, द्वन्द्वों की परवाह नहीं करता, उसे सदा सन्यासी ही समझो। वह सुखपूर्वक कर्म-बन्धन से टूट जाता है। कर्म सन्यास और कर्म योग में पार्थक्य बच्चे मानते हैं, विद्वान नहीं। इनमें किसी एक का भी सम्यक पालन दोनों का फल दे देता है क्योंकि दोनों का प्राप्तव्य एक ही है। लेकिन जो कर्म फलासक्ति नहीं छोड़ सकता उसके लिए कर्म सन्यास बहुत कष्टकारी है। कर्म-फलासक्ति का त्यागी उस स्थिति को शीघ्र पा लेता है। परमात्मा में चित्त को लगाये, विशुद्ध हृदय, मन को वश में रखने वाला जितेन्द्रिय पुरुष तो सब प्राणियों से अपना आत्मैक्य देखता है अत: वह कर्म करता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता। वह सभी इन्द्रियों के द्वारा व्यवहार करता हुआ भी इन्द्रियों को ही अपने विषयों में क्रियाशील समझता है, स्वयं को कर्ता-भोक्ता नहीं समझता। इस प्रकार सब कर्मों को व्यापक तत्व में मानकर आसक्तिहीन होकर जो कर्म करता है, वह जल में कमलपत्रवत् कर्म से असंस्पृष्ट रहता है। योगी केवल देह से, मन से अथवा इन्द्रियों से अनासक्त रहकर अन्त:करण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। इस प्रकार संयमित होकर कर्म फलासक्ति त्यागकर कर्म करने से वे परम शान्ति पाते हैं। लेकिन असंयत चित्त सकाम लोग फलेच्छा से कर्म करके बन्धन में पड़ते हैं। इस शरीर में जो देही है वह इसमें रहता हुआ भी मन से सब कर्मों की आसक्ति त्याग दे और इन्द्रियों को वश में रखे तो न कुछ करता, न कराता। परमात्मा तो किसी के लिए न कर्त्तव्य बनाता, न कर्म और न कर्म फल सुख-दु:खादि का संयोग। यह तो प्राणी अपने स्वभाव से इनमें लगता है। ईश्वर न किसी के पुण्य लेता, न पाप। अज्ञान के कारण जीव का ज्ञान ढक गया है। अत: वह मोह में पड़ा है। ज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है उनमें सूर्य के समान ज्ञान प्रकाशित है। उसी में उनकी बुद्धि तथा मन लगा रहता है। उसी में निष्ठा तथा परायणता होती है। ऐसे ज्ञान से निर्धूत कल्मष फिर जन्म नहीं लेते। ये समदर्शी सब में एक ही समय सत्य का दर्शन करते हैं। इन्होंने इसी जीवन में संसरण पर विजय प्राप्त कर ली, जीवनमुक्त हो गये क्योंकि समत्व निर्दोष ब्रह्म है। वे ब्रह्म में स्थित हैं। बाह्य विषयों के स्पर्श से अनासक्त चित्त अपने आप में जो सुख पाता है, वही अक्षय ब्रह्मात्मैक्य सुख है, उसका वह उपभोग करता है। ये जो वाह्य विषयों के स्पर्श से होने वाला सुख है, वह तो दु:ख का ही जनक है। आदि अन्त वाला है। अत: बुद्धिमान उसमें रमण नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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