पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
38. केले के छिलके
अतिथि सत्कार हो जाने पर विदुर ने पाण्डवों की कुशल पूछी। श्रीकृष्ण ने विस्तार से बतलाया कि पाण्डव क्या चाहते हैं। अपनी बुआ कुन्ती से वे मधुसूदन मिल आये और उन्हें आश्वस्त कर आये। पितामह भीष्म, आचार्यद्वय द्रोण तथा कृप, वाहृलीक एवं अन्य कुछ कुरुवंशी नरेश विदुर के घर ही श्रीकृष्ण से मिलने आये। उन्होंने उत्तम सामग्री से सजे अपने भवन निवास के लिए देने की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्णचन्द्र ने उन्हें यह कहकर सम्मानपूर्वक विदा किया - 'मैं आपकी इस आकांक्षा से ही अपने को सत्कृत हुआ मानता हूँ। यहाँ मुझे कोई असुविधा नहीं हैं।' कौरवों के चले जाने पर रात्रि विश्राम के समय विदुर श्रीकृष्ण के चरणों को धीरे-धीरे दबाते हुए उनकी समीप बैठ गये और बोले - 'केशव ! आप यहाँ पधारे, यह मेरा सौभाग्य किन्तु इस समय आपका हस्तिनापुर आना अच्छा नहीं हुआ। दुर्योधन बहुत दुर्बुद्धि है। वह धर्म और अर्थ दोनों छोड़ बैठा है। कब वह क्या कर बैठे कुछ ठिकाना नहीं है। उसे किसी सन्मार्ग में ले जाना असम्भव है। वह विषय लोलुप, अपने को बहुत बुद्धिमान मानने वाला, मित्रों से भी शत्रुता रखने वाला तथा सभी पर सन्देह करने वाला है। आपकी बात, भले वह उसी के हित की ही हो, सुनेगा इसकी कोई सम्भावना नहीं है। वह मान बैठा है कि अकेला कर्ण ही उसके सब विरोधियों को पराजित कर देगा। अत: उसमें सन्धि करने की इच्छा ही नहीं होती। भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा की सहायता पाकर वह पूरा राज्य हड़पने को कृत निश्चय है। अत: यहाँ आपका कोई प्रयत्न सफल नहीं होगा। यहाँ तो कुछ भी कहना वज्रबधिर के सम्मुख वीणा-वादन है। पहिले जिन राजाओं ने आपके साथ शत्रुता की थी वे सब अब द्वेष और भयवश दुर्योधन के आश्रित हो गये हैं। वे अब प्राण देकर भी पाण्डवों से लड़ने को प्रस्तुत हैं। अत: आप उन सबके मध्य जायँ, यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती है। यद्यपि मैं जानता हूँ कि देवता भी आपके सामने टिक नहीं सकते किन्तु मेरा हृदय स्नेह कातर हो रहा है आपका दर्शन करके मुझे जो प्रसन्नता हो रही है, उसका वर्णन नहीं कर सकता।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सस्मित कहा - 'तात ! आप जैसे बुद्धिमान और हितैषी जैसी बात कहनी चाहिए, आपने वही कहा है। माता-पिता के समान सुहृद ही ऐसी सम्मति देते हैं। लेकिन मैं दुर्योधन की दुष्टता और आगत क्षत्रियों के शत्रुभाव को जानकर ही यहाँ आया हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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