पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
38. केले के छिलके
'चाची ! मुझे बहुत भूख लग रही है।' श्रीकृष्ण ने स्वयं एक आसन खींचा और बैठ गये। दुर्योधन के अत्यन्त परिश्रम से प्रस्तुत किये गये पक्वान्नों की चर्चा से ही जिनको अरुचि हो गयी थी, जिनकी क्षुधा समाप्त हो गयी थी, वे परिपूर्ण काम विदुर के घर पहुँचते ही बुभुक्षु हो उठे थे। इन प्रेमधन को कहाँ भूख लगती है, यह इनके पादपदम में प्रीति रखने वाले ही पहिचान सकते हैं। विदुर पत्नी तो इनको देखते ही शरीर और संसार को विस्मृत हो गयी थीं। उन्हें कहाँ स्मरण था कि उन्होंने इनके लिए क्या-क्या प्रस्तुत किया है। शीघ्रता में केले की एक धार मिल गयी उसी को लेकर वे श्रीकृष्ण के सम्मुख बैठ गयीं। वे केले छीलकर श्यामसुन्दर के हाथ में देने लगीं। यह दूसरी बात है कि मन-प्राण सब इन भुवन मोहन में लगे थे, यह स्मरण ही नहीं रहा कि वे केले का केवल छिलका श्रीकृष्ण को दिये जा रही हैं और गूदा फेंकती जा रही हैं। 'ओह ! कितने स्वादिष्ट हैं ये।' भगवान यज्ञभोक्ता परमपुरुष भी भूल गये कि वे क्या खा रहे हैं ? वे पदार्थ तो कभी खाते नहीं और जब आराधक आत्मविस्मृत हो चुका, आराध्य उसके प्रेम में तन्मय हुए बिना रह कैसे सकता है। जैसे जन्म-जन्म के भूखें हों, ऐसे श्रीकृष्ण उन केले के छिलकों को खाये जा रहे थे। अचानक विदुरजी आ पहुँचे। उन्हें पता लग गया कि गरुड़ध्वज रथ उनके भवन की ओर गया है। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक सबसे विदा ली और घर की ओर भागे। द्वारा तो खुला ही था। आते ही जो दृश्य सम्मुख देखा तो पत्नी को डाँटा - 'तू इन परम सुकुमार को खिला क्या रही है?' अब विदुर-पत्नी चौंकी। विदुरजी ने पत्नी के हाथ से केले ले लिये - 'मैं खिलाता हूँ। तू वस्त्र बदल ले।' विदुरजी वहीं बैठ गये जहाँ पहिले उनकी पत्नी बैठी थी। छीलकर केला दिया श्रीकृष्ण के करों में। उन विश्वात्मा ने एक बार उसे भी मुख में लिया और बोले - 'इनमें वह स्वाद नहीं है जो इनके छिलकों में था।' विदुर के नेत्र भर आये। वे बोले - 'आपको क्या स्वादिष्ट लगता है, जानता हूँ। जो अनुपम प्रीति उसमें थी वह मेरे हृदय में कहाँ आ पायी है।' अब यह फलाहार समाप्त हो गया। विदुर ने हाथ धुलाया। आचमन करके श्रीकृष्णचन्द्र उत्तम आसन पर विराजमान हुए। अब विदुर ने विधिपूर्वक उनका पूजन किया। उनके चरणों को अंक में लेकर बोले - 'आपके पधारने से यह गृह आज तीर्थ बन गया। मेरे पितर परिपूत हुए। आप पुरुषोत्तम ने अपनाकर इस जन को धन्य कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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