पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. अर्जुन का व्यामोह
‘इस युद्ध की अपेक्षा तो संजय की वह सम्पति ही श्रेष्ठ है कि हम पाण्डवों को कहीं भिक्षा माँगकर अपना जीवन व्यतीत कर देना चाहिए। पहिले भी तो हम प्रथम वनवास के समय भिक्षाजीवी रहे हैं। मुझे उस जीवन में कोई दोष नहीं दीखता। यह युद्ध करके स्वजनों का संहार करने से वह कहीं श्रेयस्कर है। ‘मैं युद्ध करने में सक्षम नहीं हूँ। मेरा शरीर काँप रहा है। शरीर में रोमाञ्च हो रहा है। हृदय बैठा जा रहा है। नेत्रों के आगे अन्धकार छा रहा है। मैं अपने हाथों पूज्य गुरुजनों पर शर-सन्धान करूँ इससे तो कहीं कल्याणप्रद है कि मुझे शस्त्रहीन पर ये शस्त्रसज्ज कौरव टूट पड़े और मुझे मार डालें। मैं इनका कोई प्रतिकार नहीं करूँगा। ‘मेरी बुद्धि मोहित हो रही है। मैं कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हो रहा हूँ। माधव ! मैं आपका शिष्य हूँ। आपकी शरण हूँ। ज्ञानधन गोविन्द ! आप मुझे मार्ग दर्शन करावें। मुझे क्या करना चाहिऐ, इसको आप ही समझावें। मेरा उग्र क्षत्रिय स्वभाव तो स्वजनों की मृत्यु सम्मुख देखकर सो गया है। धर्म का निर्णय करने मैं असमर्थ हो गया हूँ। विश्व के परमगुरु ! मैं आपके पद-पंकजों में प्रपन्न हूँ। मेरी रक्षा करो।’ अर्जुन ने अन्त में कहा – ‘अच्युत ! मैं युद्ध नहीं करूँगा।’ यह कहकर उसने धनुष हाथ से नीचे डाल दिया। त्रोण उतार दिये और रथ के अगले भाग में श्रीकृष्ण के चरणों के समीप सिर झुकाकर बैठ गया। कान्तिहीन, मस्तक झुकाये, रुदन करते, काँपते स्वर से रोमाञ्चित की भाँति शक्ति, साहस, साहस, शौर्य, शून्य अर्जुन की अवस्था शोचनीय हो गयी थी। कोई अत्यन्त शुद्ध हृदय, स्वार्थ शून्य, सहृदय व्यक्ति ही सम्मुख संहार देखकर इतना कातर हो सकता है। शुद्धान्तकरण, परदु:खकातर, स्वयं के समस्त सुख, स्वार्थ से सर्वथा विरक्त, अत्यन्त द्रवित हृदय अर्जुनसा उत्तम अधिकारी गीता के ज्ञानोपदेश का सृष्टि में दूसरा मिलना सम्भव नहीं था। अत: विश्वैक गुरु की वाणी को उस अलौकिक ज्ञान-गंगा के आविर्भाव की भूमि का प्राप्त हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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