पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. अर्जुन का व्यामोह
श्रीकृष्णचन्द्र ने रथ बढ़ाकर दोनों दलों के ठीक मध्य में कौरव महासेनापति भीष्म के रथ के सम्मुख खड़ा किया और कहा – ‘विजय ! इन कौरव पक्षीय लोगों को देख लो।’ अर्जुन ने शत्रुपक्षीय सैनिकों को देखना प्रारम्भ किया और उनकी मुखश्री मलिन होती चली गयी। उनके नेत्रों से अश्रुधारा गिरने लगी। उनका शरीर काँपने लगा। पूरा शरीर पसीने से भीग गया। वे बहुत व्यथा भरे स्वर में बोले – ‘श्रीकृष्ण ! यहाँ शत्रु कहाँ हैं ? ये हमारे पूज्य पितामह भीष्म, ये हमारे शस्त्र-गुरु आचार्य द्रोण, ये कुलाचार्य कृप और ये मामा शल्य। इस सम्मुख के समाज में मुझे तो अपना शत्रु कोई दीखता नहीं है। हमारे भाई हैं, भतीजे हैं, साले हैं, श्वसुर हैं, सम्बन्धी ही सम्बन्धी हैं सब मेरे सामने। ‘हमको अपने लिए तो राज्य, सुख, भोग चाहिए नहीं था। यह सब चाहिए था अपने स्वजनों, सम्बन्धियों के लिए और वे सब हमारे पक्ष या विपक्ष में प्राण त्याग करने आ खड़े हुए हैं। ये नहीं रहेंगे तो राज्य, सम्पत्ति, ऐश्वर्य का हम क्या करेंगे ? इसमें हमें क्या सुख मिलेगा? ‘जिनकी पुष्प-चन्दन से हमें पूजा करनी चाहिए उन गुरुजनों पर अब मुझे घातक प्रहार करना पड़ेगा ? हम विजयी भी हो गये तो इनके रक्त से सनी सम्पत्ति ही तो हमें प्राप्त होगी। वह हमें सदा जलाती रहेगी या सुख देगी ? जनार्दन ! मैं कैसा मूर्ख हो गया था कि इस बात को पहिले समझ नहीं सका। ‘धृतराष्ट्र के पुत्र दुबुद्धि हैं। लोभ ने उनकी मति को मलिन कर दिया है। वे प्रत्यक्ष परिणाम को भी नहीं देख पाते हैं और मरने आ खड़े हुए हैं किन्तु हम तो अन्धे नहीं हुए हैं। हमें तो अपने कुल का सम्पूर्ण विनाश प्रत्यक्ष दीख रहा है। अत: हमें इससे क्यों नहीं बचना चाहिए। ‘कुल में कोई नहीं रहेगा तो श्राद्ध पिण्डदान की परम्परा कैसे चलेगी ? सुना है कि श्राद्ध का लोप पितरों के नरक-पतन का हेतु होता है। यह युद्ध तो हमारे कुल का ही उच्छेद कर देगा। सब युवा-वृद्ध यदि युद्ध में मारे गये तो उनकी स्त्रियाँ या तो सती हो जायेंगी अथवा आचार भ्रष्ट बनेंगी। ‘अनाथ शिशुओं का रुदन, विधवाओं का क्रन्दन, सतियों का शाप और कुल वधुओं को कुलटा बनाने का कुकर्म – यह युद्ध हमें यही तो देने वाला है। हम इसी के लिए यहा इतने उत्साह से एकत्र हुए हैं? मैं इस अल्प भूमि खण्ड के लिए तो क्या समस्त पृथ्वी अथवा त्रिलोकी के राज्य के लिए भी ऐसा युद्ध करना नहीं चाहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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