गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी 2

गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी


एक बार श्रीहरिवंशजी खेल-ही-खेल में बगीचे के पुराने सूखे कुएँ में सहसा कूद पड़े। इससे व्यासजी, माता तारादेवी और कुटुम्ब के लोगों को तो अपार दुःख हुआ ही, सारे नगर निवासी भी व्याकुल हो उठे। व्यासजी तो शोकाकुल हो कर कुएँ में कूदने को तैयार हो गये। लोगों ने जबरदस्ती उन्हें पकड़ कर रखा।

कुछ ही क्षणों के पश्चात् लोगों ने देखा, कुएँ में एक दिव्य प्रकाश फैल गया है और श्रीहरिवंशजी श्रीश्याम सुन्दर के मञ्जुल श्रीविग्रह को अपने नन्हे-नन्हे कोमल कर-कमलों से सँभाले हुए अपने-आप कुएँ से ऊपर उठते चले आ रहे हैं। इस प्रकार आप ऊपर पहुँच गये और पहुँचने के साथ ही कुआँ निर्मल जल से भर गया। माता-पिता तथा अन्य सब लोग आनन्द-सागर में डुबकियाँ लगाने लगे। श्रीहरिवंशजी जिस भगवान श्याम सुन्दर के मधुर मनोहर श्रीविग्रह को लेकर ऊपर आये थे, उस श्रीविग्रह की शोभा श्रीअतुलनीय थी। उसके एक-एक अंग से मानो सौन्दर्य-माधुर्य का निर्झर बह रहा था। सब लोग उसका दर्शन करके निहाल हो गये। तदनन्तर श्रीठाकुरजी को राजमहल में लाया गया और बड़े समारोह में उनकी प्रतिष्ठा की गयी। श्रीहरिवंशजी ने उनका परम रसमय नामकरण किया - श्रीनवरंगीलालजी। अब श्रीहरिवंशजी निरन्तर अपने श्रीनवरंगीलालजी की पूजा-सेवा में निमग्न रहने लगे। इस समय इनकी अवस्था पाँच वर्ष की थी।

इसके कुछ ही दिनों बाद इनकी अतुलनीय प्रेममयी सेवा से मुग्ध होकर साक्षात रासेश्वरी नित्य-निकुञ्जेश्वरी वृषभानु नन्दिनी श्रीराधिका जी ने इन्हें दर्शन दिये, अपनी रस भावना पूर्ण सेवा-पद्धति का उपदेश किया और मन्त्र दान करके इन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया। इसका वर्णन करते हुए गो. श्रीजतनलाल जी लिखते हैं -

करत भजन इक दिवस लाड़िलि छबि मन अटक्यौ।
रूपसिंधु के माँझ परयौ कहुँ जात न भटक्यौ।।
बिबस होइ तब गए भए तनु प्यारी हरिकैं।
झुके अवनि पर सिथिल होइ अति सुख में भरिकैं।।
कृपा करी श्रीराधिका प्रगट होइ दरसन दियौ।
अपने हित कौं जानिकैं हित सौं मन्त्र सु कहि दियौ।।

आठ वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार और सोलह वर्ष की अवस्था में श्रीरुक्मिणी देवी से आपका विवाह हो गया। माता-पिता के गोलोकवासी हो जाने के बाद आप सब कुछ त्याग कर श्रीवृन्दावन के लिये विदा हो गये। श्रीनवरंगीलालजी की सेवा भी अपने पुत्रों को सौंप दी।


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