कृष्णांक
श्रीकृष्णार्जुन-युद्ध
इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञा कर नारदजी चित्रसेन के पास पहुँचे। चित्रसेन ने उनकी विधिवत पूजाकर आसन दिया, और उनके सुखपूर्वक बैठ जाने पर पूछा, ‘देवर्षि, कहिये कहाँ से आना हुआ ? आप आनन्द पूर्वक हैं न ? कहिये हमारे ग्रहादि आजकल कैसे हैं ? किसी भयंकर अनिष्ट की तो सम्भावना नहीं है’। नारदजी ने कहा गन्धर्वराज ! तुम्हारे लिये यह बड़ा ही अनिष्टकाल उपस्थित हुआ है, तुम्हें जो कुछ शुभ कर्म करना हो शीघ्र ही कर लो, अब तुम्हारा जीवन अधिक काल रहने वाला नहीं है’। यह कहकर उन्होंने उसे श्रीकृष्णचन्द्र की प्रतिज्ञा का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर चित्रसेन बहुत ही घबड़ाया और अपनी रक्षा के लिये दीन होकर इन्द्र, कुबेर, वरुण और ब्रह्मा आदि समस्त लोकपालों के पास गया। किन्तु उसे किसी ने भी शरण न दी। अन्त में निराश होकर वह नारदजी की ही शरण में आया और अपनी पत्नियों सहित फूट-फूटकर रोने लगा। नारदजी का हृदय दया से द्रवीभूत हो गया और वे उसे इन्द्रप्रस्थ में श्रीयमुना जी के तट पर ले जाकर बोले– ‘आज अर्धरात्रि के समय यहाँ एक स्त्री आवेगी। उस समय तुम ऊँचे स्वर से विलाप करते रहना। यह स्त्री तुम्हारी रक्षा कर लेगी। किन्तु एक बात ध्यान में रखना, जब तक वह प्रतिज्ञापूर्वक तुम्हारे कष्ट निवारण के लिये वचन न दे, तब तक तुम उसे अपने कष्ट का कारण मत बतलाना’। चित्रसेन को इस प्रकार समझाकर नारदजी अर्जुन के महल में सुभद्रा के पास पहुँचे और कहा– ‘सुभद्रे ! आज का पर्व बड़ा ही सुन्दर है, आज रात्रि के समय यमुना-स्नान करने और किसी दीन की रक्षा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी। स्त्रियों के लिये तो यह चिर सौभाग्य देने वाला है’। नारदजी के ये वचन सुनकर सुभद्रा देवी उसी समय उनके साथ यमुना-स्नान को चल दीं। स्नान कर चुकने पर उन्हें किसी के रोने का शब्द सुनायी पड़ा। उन्होंने तुरन्त ही पास जाकर कष्ट का कारण पूछा। गन्धर्व ने कहा ‘देवि ! यदि मुझे शरण देकर आप प्राणदान करने की प्रतिज्ञा करें तो मैं अपने दु:ख का कारण निवेदन करूँ’। सुभद्रा ने देवर्षि नारद को साक्षी कर शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की कि आज मैं तुम्हारा दु:ख अवश्यक दूर करूँगी, तुम उसका कारण बतलाओ’। गन्धर्व ने अपने वध के विषय में श्रीकृष्णचन्द्र की प्रतिज्ञा का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया और अपनी प्राण-रक्षा के लिये प्रार्थना की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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