कृष्णांक
गीता के वक्ता श्रीकृष्ण
इसलिये बेखटके कर्म करे। लोकसंग्रह के लिये अवश्यक करे। ऐसा कर्म करते-करते अन्त में भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है – यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा तो सदा से होता आया है। भगवान श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन को कर्म करने का उपदेश दिया, तभी से यह कर्म करने की प्रथा चली हो सो बात भी नहीं। सदा से ही लोग कर्म करते और इसके द्वारा सिद्धिलाभ करते आ रहे हैं। जनक इत्यादि अनेक बड़े-बड़े लोगों ने ऐसा करके ही सिद्धि पायी थी। पर एक बात है, जैसे सभी कर्म कर्तव्य कर्म या स्वकर्म नहीं हो सकते– शास्त्रविहित कर्म ही स्वकर्म हैं, उसी प्रकार चाहे जिस तरीके से कर्म कर डालना ही कर्तव्यपालन नहीं है। चाहे जिस तरह से करने से तो नरक का टिकिट मिलने के और कुछ भी हाथ नहीं आने का। इस हिसाब से तो सारा संसार कर्तव्य-कर्म ही कर रहा है। पर ऐसी बात नहीं है। सारा संसार कर्मयोगी नहीं है। कर्मयोगी बिरले हैं। कर्मयोगी का कार्य भिन्न होता है और उसकी कार्य-पद्धति भी साधारण लोगों से सर्वथा भिन्न होती है। योगी कर्म करता है, पर उसके फल की इच्छा नहीं करता, क्योंकि वह समझता है कि मुझे सिर्फ कर्म करने का ही अधिकार है, कर्म-फल देने वाला कोई दूसरा ही है, इसलिये वह फल की इच्छा भूलकर भी नहीं करता। भगवान का यह वचन योगी को सदा याद रहता है। वह कर्मफल की वासना नहीं रखता, पर यह भी नहीं कि फलप्राप्ति का अधिकार हाथ में न होने से वह कर्म ही न करे। क्योंकि कर्तव्य कर्म तो करने के लिये ही होता है। उसे न करने से अकर्मता का दोष लगता है। इसलिये कर्म करना चाहिये अवश्य। बचाव की बात सिर्फ यही है कि फलाफल का विचार नहीं करना चाहिये। इसके अतिरिक्त फल की आकांक्षा से लाभ भी क्या है ? फल न मिला तो दु:ख से मरे और मिल गया तो तृष्णा बढी– और अधिक आशा के बन्धन में जकडे़। मतलब यह कि दोनों ओर से ही आफत है। बेकार सुख-दु:ख को बुलाकर चित्त की शान्ति को नष्ट करना है और यही सर्वनाश का मार्ग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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