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निर्गुण कहने का अभिप्राय यह है कि प्रकृति से उत्पन्न कोई गुण मुझ में नहीं है और जो मेरे गुण हैं, उनमें अनन्तता और असिद्धता है। सब भेद मुझको अरूप कहते हैं, इसका कारण यह है कि मेरा यह रूप चर्मचक्षु का विषय नहीं है। मैं अपने चिद्-अंश से व्याप्त हूँ, इसलिये विद्वान मुझे ब्रह्म कहते हैं और मैं प्रपंच को नहीं रचता इसलिये मुझको निष्क्रिय कहते हैं। इत्यादि, भाव यह है कि शुद्ध प्रेम ही ब्रह्म का निज रूप है, वह निराकार भी है और साकार भी। उसका निराकार व्यापक स्वरूप चाह, चटपटी, उज्वलता, आधीनता, कोमलता, स्निग्धता, सरसता, नूतनता, सहज स्वच्छन्द मधुरता और मादकता आदि अनन्त रुचित-तरंगों को एकरस बढाता है और उसमें क्षण-क्षण में नवीन रस का आस्वादन होता है। प्रेम का स्थान हृदय है, इसी से कहते हैं कि भगवान हृदय में रहते हैं, शुद्ध और निराकार प्रेम की घनीभूत मूर्ति श्रीवृन्दावन-धाम और श्रीराधाकृष्ण हैं। इसका दृष्टान्त उपनिषदों में और वेदान्तों सूत्रों में प्रकाश और सूर्य से दिया गया है। सूर्य अथवा दीपक की शिखा घनीभूत प्रकाश ही है, प्रकाश के सिवा कोई दूसरी वस्तु उसमें नहीं है। तथापि उसका मूर्तिमान स्वरूप उसी के अमूर्तिमान और व्यापक स्वरूप प्रकाश से अभिन्न होते हुए भी भिन्न कहा जा सकता है।
प्रेम के स्वरूप में भेद भी सत्य है और अभेद भी। इन दोनों का अस्तित्व भी कहा जा सकता है और निषेध भी किया जा सकता है। क्योंकि दो के बिना प्रीति कहीं भी नहीं देखी जाती, इसलिये भेद मानना ही चाहिये। साथ ही एकता के बिना प्रीति कभी ध्यान में भी नहीं आ सकती, इसलिये प्रीति का स्वरूप ही अभेद यानी एकता है। यदि भेद है तो उसे हम प्रीति कह ही नहीं सकते और केवल एक की में प्रीति हो भी नहीं सकती। इस प्रकार के परस्पर विरुद्ध धर्मों के प्रतिपादक श्रुतिवाक्यों के यथार्थ अर्थ प्रेम को न समझकर विरोध की शंका से द्वैताद्वैत आदि अनेक मतों की कल्पना की गयी है। परन्तु आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो श्रुति स्वयं ही बतला रही है कि ‘वह आत्मा द्वैताद्वैतस्वरूप और द्वैताद्वैतविवर्जित[1] है’ ‘एकत्व[2] ही नहीं है तो द्वैत कहाँ से हो सकता है ?’ इत्यादि सूत्रकार ने भी अनेक वेदान्त वाक्यों को उद्धृत करके यह सिद्ध किया है कि जो अपने से पृथक इष्ट (ईश्वर) की उपासना करते हैं, वे अपने ही हित के प्रतिबिम्ब की उपासना करते हैं, क्योंकि जिसकी जैसी प्रीति होती है, वही उसके इष्ट का स्वरूप होता है। प्रीति होने से ही इष्ट के दर्शन होते हैं, प्रीति की वृद्धि में वृद्धि और ह्रास में ह्रास देखा जाता है। इससे प्रीति ही ब्रह्म है और इष्ट उसका आभास मात्र है। इसके सिवा पृथक ईश्वर की कल्पना में सम्बन्ध की अनुपपत्ति का दोष भी बताया है, क्योंकि दो भिन्न-भिन्न पदार्थों में सम्बन्ध ही नहीं हो सकता ।
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