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इस श्रीमद्भागवत की व्यवस्था को देखते हुए श्रीराधा को प्रकृति, माया, शक्ति या जीव कहना अत्यन्त अनुचित है। आत्मा शब्द की व्याख्या समस्त वेदान्तों में प्रसिद्ध है। सूत्रकार ने किसी गौण अर्थ में भी माना या प्रकृति आदि के लिये आत्मा शब्द का प्रयोग होना सम्भव नहीं माना है। ‘गौण[1] श्चेन्नात्मशब्दात्’[2]
आत्मा का लक्षण ब्रहदारण्यक के मैत्रेयी ब्राह्मण में इस प्रकार किया है ‘.......न वा सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति ।। आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति’।। जो कुछ भी पुत्र, मित्र, घर, स्त्री आदि प्रिय होते हैं, वे सब इन वस्तुओं के कारण प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्मा के अर्थ ही प्रिय होते हैं अर्थात जिसमें प्रियत्व का अतिशय है, जिसकी किंचित-सी झलकमात्र से और सब वस्तु प्रिय होती हैं, उस हृदय के हित को आत्मा कहते हैं।
‘तदेतत्प्रेयो– ‘इत्यादि। जो यह आत्मा है सो सबसे प्रिय है। पुत्र से, मित्र से, धन से और जो कुछ भी है उस सबसे अत्यन्त प्रिय आत्मा ही है। इसलिये आत्मा ही देखने योग्य, श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य और साक्षात करने योग्य है।
इस सम्पूर्ण विश्व के आत्मा श्रीकृष्ण हैं और उन श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं। जो लोग श्रीकृष्ण को ब्रह्म और श्रीराधा को ब्रह्म से इतर कोई दूसरा तत्व कल्पना करते हैं, उन्होंने ब्रह्म-तत्व को यथार्थ नहीं समझा। कोई-कोई तो यहाँ तक भूलते हैं कि वे श्रीकृष्ण को भी ब्रह्म नहीं कहकर एक सर्वगुण रहित निर्विशेष सत्तामात्र ब्रह्म की कल्पना करते हैं। वेदान्त सूत्रों में सब उपनिषदों का अच्छी प्रकार विचार करके जो ब्रह्म का स्वरूप निर्णय किया है, उसे हम अति संक्षेप में यहाँ लिखते हैं। इस विषय को विस्तारपूर्वक लिखने का इस छोटे से लेख में अवकाश नहीं है। ब्रह्म का लक्षण तैत्तिरीय उपनिषद की भार्गवी-वारुणी विद्या के अनुसार यह है कि ‘आनन्दाद्ध्येव खलु इमानि भूतानि जायन्ते’ इत्यादि। अर्थात आनन्द से ही सबकी उत्पत्ति, आनन्द में ही सबका जीवन और आनन्द में ही सबका लय होता है तथा मोक्ष होने के समय भी सब आनन्द में लीन हो जाते हैं। अतएव आनन्द ही ब्रह्म है, वही रस है, क्योंकि इस रस को ही पाकर यह आनन्दी होता है।
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