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मानव-चित्त के अति सूक्ष्म एवं स्वाभाविक भ्रमों से दूसरा भ्रम जो औरों की अपेक्षा अधिक गहरा है, मनुष्य का पृथक व्यक्तित्व है। जब हम मिलकर किसी बात का चिन्तन करते हैं उस समय मेरे और तुम्हारे बीच में और हमारे और सारी मनुष्य–जाति के बीच में एक ऐसी वस्तु उत्पन्न होती है जो हम दोनों से भिन्न है और हम दोनों ही जिसके ज्ञान के विषय है, जो यहाँ बैठकर विचार करती है, और हम दोनों को उस विचार की क्रिया में एक-दूसरे की सहायता करने के लिये ठीक उसी तरह प्रेरित करती है, जिस तरह मेरा अँगूठा और उँगली जब मैं इस कलम को लिखते समय हाथ में पकडता हूँ तब एक-दूसरे की मदद करते हैं’।
भगवद्गीता का अध्ययन करने वालों को मालूम होगा कि गीता के तीसरे अध्याय में जिस शाश्वत यज्ञचक्र का बड़ी सुन्दरता के साथ वर्णन किया गया है उससे बहुत कुछ मिलती-जुलती बात ऊपर कही गयी है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस यज्ञचक्र के चलाने में जो मदद नहीं करता, वह पाप करता है। वेल्स महाशय निम्नलिखित शब्दों में इस बात को भी सूचित करते हैं–
‘So soon as one passes from general terms to the question of individual good, one encounters individuality, for everyone in the differing quality and measure of their personality and powers and possibilities, good and right must be contributing from his or her own standpoint in the collective synthesis. Whatever one can best do, one must do that; in whatever manner one can help the synthesis one must expert oneself. The setting apart of oneself, secrecy, the service of secret and personal ends is the waste of life and essential quality of sin’.
‘सर्वसाधारण के प्रश्न को छोड़कर व्यक्तिगत हित के प्रश्न को हाथ मे लेते ही मनुष्य के सामने व्यक्तित्व हित के प्रश्न को हाथ में लेते ही मनुष्य के सामने व्यक्तित्व का प्रश्न उपस्थित हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के अन्दर अच्छी और न्याययुक्त शक्ति और सामर्थ्य की जो एक विशेषता होती है, उसके प्रकार और मात्रा में अवश्य भेद होता है। हमलोग सभी अपनी-अपनी विचारधार के अनुसार सामूहिक समन्वय के कार्य में योग देने में लगे हुए हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह उस कार्य को अवश्य करे जिसे वह सूचारू रूप से सम्पन्न कर सकता है। वह जिस प्रकार से भी इस समन्वय के कार्य में मदद दे सके उसी प्रकार से उसे मदद देने की चेष्टा करनी चाहिये। अपने को संसार से अलग रखना, छिपकर रहना तथा अप्रकट एवं व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करना– यह जीवन का दुरुपयोग एवं पाप का मुख्य लक्षण है’।
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