कृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
ब्रह्माण्ड की परिधि के भीतर भी वह सोममण्डल व्याप्त है। जैसे व्यापक आकाश में कोई दीवार (भित्ति) बनायी जाय तो हमें प्रतीत होता है कि यहाँ अब आकाश (अवकाश) नहीं रहा, किन्तु यह भ्रम है, उस दीवार के आधाररूप से आकाश वहाँ मौजूद है, उसी में दीवार है, और दीवार हटते ही फिर आकाश ही आकाश रह जाता है। इसी प्रकार सूर्यप्रकाश होने पर वह कृष्ण-सोममण्डल हमें प्रतीत नहीं होता, किन्तु प्रकाश उसी के आधार पर है, वह प्रकाश में अनुस्यूत है और प्रकाश हटते ही (सूर्यास्त होते ही) फिर वह श्याम तेज प्रतीत होने लग जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर बिना अन्धकार के प्रकाश और बिना प्रकाश के अन्धकार कहीं नहीं रहता, दोनों में अनुस्यूत हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जहाँ एक दीपक का प्रकाश हो वहाँ दूसरा दीपक और लाया जाय तो प्रकाश अधिक प्रतीत होता है, और तीसरा दीपक और आवे तो और भी अधिक। जितने दीपक अधिक होंगे उतनी ही प्रकाश में स्वच्छता आती जायगी। भला यह क्यों ? जब एक दीपक के प्रकाश ने अपनी व्याप्ति के प्रदेशों में से अन्धकार हटा दिया तो फिर उसी प्रदेश में दूसरे दीपक का प्रकाश क्या विशेषता पैदा कर देता है कि हमें अधिक स्वच्छता प्रतीत होती है ? मानना पड़ेगा कि एक दीपक का प्रकाश रहने पर भी उसमें अनुस्यूत अन्धकार था, जिसे दूसरे दीपक ने हटाया, फिर भी जो था उसे तीसरे ने आकर चौथे ने। स्मरण रहे कि श्याम तेज ही अन्धकार रूप से प्रतीत हुआ करता है। यों प्रकाश में अनुस्यूत- श्याम तेज, जब सिद्ध हो गया तो मानना होगा कि हजारों दीपक वा सूर्य का प्रकाश रहने पर भी आंशिक श्यामतेज की व्याप्ति हट नहीं सकती, वह आकाश की तरह अनुस्यूत रहती ही है। दूसरा प्रमाण यह है कि जिस स्थान में अनेक दीपक हों, वहाँ भी एक दीपक के सम्मुख भाग में कोई लकड़ी आदि आवरक पदार्थ रखो तो उसकी धीमी-सी छाया उसके सम्मुख भाग में प्रतीत होगी। जितने अंश में प्रकाश का आवरण होकर स्वतःसिद्ध तम दीख पड़ता है उसे ही छाया कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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