कृष्णांक
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण-चरित्र
प्रत्युत श्रीकृष्ण-बलराम दोनों का एक साथ जो गोपियों के साथ खेलना है वह बाललीला प्रतीत होता है और उसमें जो शंखचूड का वध है वह स्वाभाविक अद्भुत कर्म प्रतीत होता है, इससे अनुमान होता है कि उसी लीला के आधार पर रासपंचाध्यायी को अपनी ओर से बनाकर किसी आधुनिक कवि ने पीछे से इधर आकर भागवत में डाल दिया है। कोई भी निष्पक्ष होकर यदि पूर्वा पर का अनुशीलन करे तो हठात् इसी निश्चय पर पहुँचेगा। इसका इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि रासपंचाध्यायी के बनने के बाद भी किसी कवि को जब उसके श्रृंगार-वर्णन में न्यूनता मालूम हुई है तो 30 वें अध्याय के 31 वें श्लोक के बाद डेट श्लोक उसने गढकर बहुत हाल में डाल दिया है। अतएव श्रीधरादि टीकाकारों की टीकाओं में यह डेढ श्लोक नहीं मिलता और आजकल की छपी पुस्तकों में प्रक्षिप्त का चिह्न देकर छापा हुआ मिलता है। वह है ‘इमान्यधिकमग्रानि पदानि वहतो वधूम्। गोप्य: पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिन:।। अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बात ठीक है, ‘श्रीकृष्ण लीला रूपी अनन्त सागर का का सार पाना साधारण बुद्धि का कार्य नहीं है’। मेरी तुच्छ समझ से तो दीर्घ साधन के द्वारा जब अन्त:करण की शुद्धि हो जाती है तभी श्रीकृष्ण कृपा से श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्मों का कुछ रहस्य समझा जा सकता है। रासलीला का क्या रहस्य है, इस बात को वास्तव में श्रीभगवान या महामुनि व्यास ही जानते हैं, अथवा वे महान पुरुष जानते होंगे जो श्रीकृष्ण कृपा के पात्र और उनके पवित्र चरण-रज के यथार्थ प्रेमी हैं। मुझ सरीखा मनुष्य तो इस विषय पर कुछ भी कहने का अधिकारी नहीं। हां, महात्मा पुरुषों द्वारा सुने हुए सदुपदेशों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके मत के अनुसार श्रीमद्भागवत में रासलीला का प्रसंग प्रक्षिप्त नहीं है। यह वृन्दावन में होने वाली श्रीभगवान की एक महान उच्च और सत्य आध्यात्मिक लीला है। इसमें व्यभिचार या इन्द्रिय चरितार्थता का लेश भी नहीं है। शिशुपाल को इस महान अन्तरंग लीला का पता ही कैसे लगता जबकि रास में सम्मिलित होने वाली प्रात: स्मरणीया, भक्ति और वैराग्य की मूर्ति कृष्णप्रेममयी साध्वी गोपियों के पति पुत्रों को ही यह ज्ञान रहा कि वे यब घर में सोई हुई हैं। श्रीमद्भागवत में इसका स्पष्ट उल्लेख है।
द्रौपदी प्रभृति पवित्र अन्तरंग भक्तों को इस लीला का पता था, इसी से तो द्रौपदी ने कौरव सभा में जाते समय लाज बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण को ‘गोपीजनप्रिय’ कहकर पुकारा है।
रही भट्टपाद कुमारिल जी के वर्णन की बात, सो उन लोगों के मन के इस लीला के आध्यात्मिक रूप होने के सिवा दूसरी बात जँची ही नहीं थी तब वे इसका उल्लेख कैसे करते? कुमारिल के कुछ बाद होने वाले भगवान शंकराचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा गान करते हुए स्वयं कहा है–एको भगवान रेमे युगपद् गोपीष्वनेकासु।
तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उस समय यह कथा प्रचलित नहीं थी। काशी के सरस्वती-भवन में जो भागवत की पुरानी प्रति है, उसका चित्र इसमें अलग छापा जा रहा है, उसके सम्बन्ध में उसके वर्तमान लाइब्रेरियन डॉ. श्रीमंगलदेवजी शास्त्री एम.ए., पी.एच.डी. लिखते हैं कि ‘(गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल) श्रीगोपीनाथ जी कविराज ने पहले पता लगवाया था कि उसमें रासपंचाध्यायी के विषय में प्रचलित प्रति से केवल इतना ही भेद है कि हमारी प्रति में प्रचलित दो अध्यापकों को एक ही अध्याय माना जाता है पर श्लोक-संख्या में भेद नहीं है।' - सम्पादक