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उसकी क्या हालत होगी ? रासलीला के मानने से तो वर्णसंकर का मार्ग ही प्रशस्त हो जाता है, क्योंकि इस प्रकार कुलस्त्रियों के दूषित और पथभ्रष्ट होने का रास्ता वही दिखा देते हैं और यही वर्णसंकर का मार्ग है, जैसा कि गीता के प्रथमाध्याय में ही कहा गया है कि ‘प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जाते वर्णसंकर:’।। अतएव गीता के साथ रास-लीला को मिलाने पर प्रचण्ड व्यामोह होना अनिवार्य है और सहसा यही कहने को जी चाहता है कि आधुनिक उपदेशों की तरह श्रीकृष्ण कभी भी अपने कथन के विपरीत आचरण नहीं कर सकते थे। फिर यह रास-लीला कैसी ? एक बात और। श्रीमद्भागवत के ही दशम स्कन्ध के 74वें अध्याय में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के प्रसंग से श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा और उसी से शिशुपाल के रूष्ट होकर बेहिसाब झूठ-सत्य, अंट-संट बकने का वर्णन है। अन्यान्य ग्रन्थों में भी यह वर्णन मिलता है। शिशुपाल के प्रलाप से यह स्पष्ट है कि उसने श्रीकृष्ण को खूब ही बदनाम करना चाहा है और एतदर्थ मिथ्यारोपतक कर डाला है।
उसने कहा है- ‘जो कहा जाता है कि काल बड़ा ही बली है, सो ठीक ही है। नहीं तो सहदेव जैसे बच्चों की बात को वृद्धलोग क्यों कर मान लेते ! हे सभासदो ! आप लोग पात्रा पात्र के जानकारों में सर्वोपरि हैं, फिर कृष्ण की पूजा क्यों ? आप लोग लड़के की बात न मानें ! भला, तप, विद्या, व्रतादि के पालकों और ज्ञान के बल से सभी पापों को दग्ध कर डालने वाले ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मर्षियों को जिन्हें इन्द्रादि लोकपाल भी पूजते हैं, छोड़कर कुलांगार यह ग्वाला कैसे पूजा जा सकता है ? क्या कौआ कभी देव-हवि का अधिकारी हो सकता है ? यह तो वण्र, आश्रम, कुल से रहित, सर्वधर्म बहिष्कृत और गुणरहित स्वेच्छाचारी है। फिर इसकी पूजा कैसी ? ययाति ने तो इसके कुल को ही शाप दिया है, भले लोगों ने इन लोगों को बहिष्कार किया है और ये यदुवंशी पियक्कड़ भी हैं। फिर भी पूजा ? इसीलिये तो ब्रह्मर्षियों के देश को छोड़कर ये सब ब्रह्म तेज रहित देश में जाकर और समुद्र के भीतर किला बनाकर वहीं से प्रजा को लुटेरों की तरह सताया करते हैं ।
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