कृष्णांक
लीला- पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण
किसी भक्त कवि ने भगवान श्रीकृष्ण के संबंध में ठीक ही कहा है- यं ब्रह्येतिवदन्ति केचन जगत्कर्तेति केचित्परे जिन महापुरुषा को विवेकी विद्वानों में से कोई ब्रह्म, कोई जगत्कर्ता, कोई आत्मा एवं कोई भगवान के रूप में स्मरण करता है एवं जिनका परम तेज देश और काल में स्मरण करता है एवं जिनका परम तेज देश और काल के द्वारा भी परिच्छिन्न नहीं हो सकता है, वे ही भक्रतवत्सल भगवान आज यशोदा की गोद में परिच्छिन्न होकर बालरूप से विलसित हो रहे हैं । किसी भी आधार में स्थूल प्रकृति की जितनी भी अधिकाधिक पूर्णता होती है, वहाँ उसी अनुपात में सौन्दर्य भी विलसित होता रहता है, यही कारण है। आर्य कवियों ने सौन्दर्य को भगवान की सर्वोत्कृष्ट विभूति या प्रकृति का प्राण माना है। जब हम देखते हैं कि लोक में प्रकृतिदत्त साधारण सौन्दर्य में ही कितना मोहन, कितना आकर्षण एवं कितना वशीकरण होता है तो फिर जिन प्रकृतिनाथ के भौतिक शरीर को अपनी कला-कुशलता को दिखलाने के लिए प्रकृति ने स्वयमेव अपने हाथों से ही सजाया हो, उस अलौकिक सौन्दर्य के संबंध में अधिक कुछ लिखना केवल उपहासास्पद ही होगा। बालक श्रीकृष्ण के नामकरण संस्कार के लिए आचार्यजी आते हैं। उस अश्रुतपूर्व दिव्य छवि को इन सौभाग्यशाली चर्मचक्षुओं से देखकर सहसा ही कह उठते हैं- धैर्य धिनोता बत कम्पयते शरीरं ’धैर्य छूटा जाता है, शरीर कम्पित और रोमांचित हो रहा है एवं बुद्धि भी विलुप्त हुई जा रही है, आश्चर्य है कि जिनके नामकरण के लिए मैं यहाँ आया हूं, उन्होंने तो स्वयमेव मेरे नाम से मिटा दिया है अर्थात जीवन्मुक्त बना दिया है’। भगवान श्रीकृष्ण का वह सुन्दर रूप आज भी उनके असंख्य भक्तों की आंखों में बसा हुआ है। जिसने स्वपन में भी एक बार उस बांकी-झांकी के दर्शन करने की चेष्टा की है, वह फिर संसार का नहीं रह गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |