श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का आदेश
16- तस्मात्तवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । (कामरुप वैरी मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि में रहता है) इसलिये हे अर्जुन ! पहले तू इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान-विज्ञान का नाश करने वाले इस कामपापी को मार डाल । 17- एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । हे महाबाहो ! तेरा आत्मा सबसे श्रेष्ठ है) इस प्रकार की बुद्धि से उस सबसे उत्तम और बलवान आत्मा को जानकर तथा बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके आत्मा को जानकर तथा बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके उस दुर्जय कामरुप शत्रु को मार । 18- एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: । पूर्वकाल में होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार (निष्कामभाव से कर्म करने से वे लिपायमान नहीं करते) जानकर ही कर्म किया गया है, अतएव तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये गये कर्म ही कर । 19- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्र्नेन सेवया । ज्ञानी पुरुषों को भलीभाँति प्रणाम और सेवा द्वारा प्रसन्न करके निष्कपटभाव से प्रश्न करके उनसे उस ज्ञान को जान, वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे । 20- त्तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: । अतएव हे भारत ! समत्वबुद्धिरुप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित इस अपने संशय को ज्ञानरूपी तलवार द्वारा छेदन करके कर्तव्य के लिये खड़ा हो । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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