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आजकल के सत्संग का चित्र प्राय: कुछ इसी प्रकार का हो गया है। एक महात्माजी (उन्हें चाहे महात्मा कहिये, साधु-संन्यासी, विरारी अथवा भक्तजी कहिये, बात एक ही है) बैठे हैं, एक भद्र पुरुष से उनका वार्तालाप हो रहा है, आसपास दस-पांच अशिक्षित मनुष्य बैठे हैं जो समझते-गुनते कुछ नहीं, परन्तु हां में – हां जरुर मिलाते हैं। महात्मा अपने मन में इस बात से निर्भ्रान्त हैं कि कोई उन्हें टोकेगा या शंका की अर्थात बात के असली स्वरुप को समझने की चेष्टा की। बस, महात्माजी बिगड़ उठे, प्रश्नकर्ता को ‘भगवत्शत्रु’ ‘नास्तिक’ इत्यादि की उपाधियों से विभूषित कर दिया। बताइये, महात्माजी परमेश्वर तो हैं ही नहीं कि उनका वाक्य ‘ब्रह्मवाक्य जनार्दन:’ समझ लिया जाये, फिर क्या कारण कि उनसे शंका की ही न जावे ! इस प्रथा का दुष्परिणाम यह होता है कि अनेक सिद्धान्त अप्रतिपादित ही रह जाते हैं। इससे निष्कर्ष यह निकला कि सत्संगियों को सदैव समभाव से वार्तालाप करना चाहिये। दूसरी बात जो सत्संग के लिए अत्यावश्यक हे वह है सत्संगियों में परस्पर सहिष्णुभाव। आजकल सत्संगियों में प्राय: असहिष्णुता बहुत दिखायी देती है। इस कारण वास्तविक सत्संग भी क्वचित ही दिखायी देता है। अल्पज्ञानी, हठी लोगों के बड़े बनने का एकमात्र साधन है उनकी सहिष्णुता। इस श्रेणी के मनुष्य के आगे उनकी एक नहीं चलती अथवा उनकी सम्पूर्ण विद्वत्ता समाप्त होती है तो उस मनुष्य के प्रति उग्र रूप धारण कर लेते हैं और उसके प्रति इच्छानुसार दुर्वचनों का प्रयोग करते हैं। उनके इस विकट रुप को देखकर दस-पांच और पास बैठे मूढ़ जन भी उनको ही सत्य समझते हैं। बस, शंका करने वाला शुद्ध हृदय भद्र पुरुष लाचार होकर अपने सम्मान के रक्षार्थ चुप हो जाता है। इस प्रकार सत्य का गला अनायास ही घुट जाता है, दम्भ की वास्तविकता पर विजय हो जाती है, शंकाओं का समाधान किसी बात के तत्व पर पहुँचते के लिए नितान्त आवश्यक है।
खेद के साथ लिखना पड़ता है, आजकल दम्भ की मात्रा प्रत्येक कार्य में बहुत बढ़ गयी है। आजकल के सत्संगी भी प्राय: अधिकांश (सब नहीं) दम्भी हैं तथा स्वार्थ चिन्तन में रत रहते हैं। विभूति रमा ली, गीता के दो चार श्लोक रट लिये, उलटा सीधा उनका अर्थ समझ लिया, रामायण की कुछ चौपाई अर्थ समेत कण्ठस्थ कर ली और समझने लगे अपने को मुनि। मुनि भी कैसे, भृगुमुनि ! कम नहीं ! जिन्होंने ठेठ भगवान के वक्ष:स्थल पर पद-प्रहार किया था। जरा ध्यान दीजिये। जब वे अपने को भृगुमुनि ही समझ बैठे हैं तो सद्गृहस्थों को तो वे क्या समझेंगे ? बस, आकर उनकी गुलामी कर दी, चरण-स्पश्र किये, गोड़ दाबे, मालपूवे खिलाये तब तो ठीक-ठाक है अन्यथा पामर है ! पापी है ! कलियुग में धर्म उठ गया ! भारतवर्ष में इसी प्रकार अनेक रीतियों से दास-मानस की वृद्धि की गयी है और लोग दासता की बेड़ियों में बेतरह जकड़े हुए हैं ।
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