श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-परत्वम्
इसी प्रकार अर्जुन के प्रति श्रीमुख का वचन पद संदर्भ का है- अंशो यस्यैव साक्षाद्विभवति यह कथन, श्रीगर्ग संहित की ‘परिपूर्णतम: साक्षात् कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ इस उक्ति तथा श्रीमदभागवत के ‘एत चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्। नारायणोअंक नरभूजलायनात्। ‘स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्रयधीश: स्वाराज्य लक्ष्म्याप्तसमस्तकाम: बलिं: हरद्भिश्चिलोकपालै: किरीटकोट्येडितपादपीठ: ।' इन वचना मृत का भी यही तात्पर्य है। इनका अर्थ, क्रम सन्दर्भ, चक्रवर्ति आदि ग्रन्थों में देखना चाहिये । इस पर कोई शंका करे कि जब श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान हैं तो ‘त्रांशेनाअवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न:’ कलाभ्यां नितरां हरे: कलावरतीर्णाववनेर्भरासुरान् हत्वेह भूयस्तरयेतगन्ति में ‘कलया सितकृष्णकेशा:’ इत्यादि वचनों की संगति किस प्रकार होगी ? सो ऐसा भ्रम न करना चाहिये, क्योंकि तत्व स्थलों में इनकी व्याख्या करते समय टीकाकारों ने इसका यथोचित समाधान कर दिया है। इस विषय में यदि विशेष जिज्ञासा हो तो ‘श्रीकृष्ण संदर्भ’ देखें। देखिये, गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी भी इस विषय में रामायण में क्या लिखते हैं- प्रणतपाल सुरतरु सुरधेनू। विधि हरि हर वन्दित पदरेनू ।। इस प्रकार श्रीविष्णु और श्रीमहाविष्णु के भी अंशी (जनक) श्रीकृष्ण ही हैं, यह सिद्ध हुआ। अब श्रीकामदेव के मदखंडन करने वाले भी श्रीकृष्ण ही हैं, अन्य कोई नहीं। इसमें प्रमाण दिये जाते हैं। श्रीमद्भागवत क दशम स्कन्ध के 29वें अध्याय की टीका ‘भावार्थ दीपिका’ में श्रीश्रीधरस्वामिपाद लिखते हैं- ब्रह्मादि जय संरुढदर्प कन्दर्प दर्पहा मुन्द्रचूड़ामणि श्रीशुकदेवजी ने भी रास पंचाध्यायी में यही दिखलाया है कि श्रीकृष्णचंद्र ने रासविलास द्वारा कामदेव को विजय किया था। इसीलिये रास पंचाध्यायी की समाप्ति में उसकी फल स्तुति का वर्णन करते समय उन्होंने उसके पाठ और कथोपकथन का फल भक्ति प्राप्ति तथा कामबाधा निवृति ही दिखलाया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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